SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 339 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 सार हैं जब तुम सामान्य-ज्ञान कर लोगे, तो श्रद्धान बढ़ेगा और जैसे ही सम्यक्त्व हो गया, तो जो पहले तूने सीखा था, पढ़ा था वह भी सम्यक् हो गया; लेकिन निर्वाण नहीं होगां यदि ज्ञान से मोक्ष हो गया होता तो केवलज्ञान होते ही मोक्ष हो जाता, फिर दिव्य-देशना कैसे खिरती? इसलिए छोटे-मोटे संयम से निर्वाण नहीं होता, यथाख्यात-चारित्र जब तक नहीं बनता, तब तक निर्वाण की प्राप्ति नहीं होतीं दर्शन, ज्ञान, सामायिक यह सब यथाख्यात चारित्र के लिए हैं अहो ज्ञानी! जिसने यथाख्यात चारित्र को प्राप्त कर लिया, उसका भेद विज्ञान जगता हैं अमृतचंद्र स्वामी ने कहा है कि आज तक जो भी सिद्ध हुए हैं, भेदविज्ञान से हुए हैं, जितने हो रहे हैं, भेदविज्ञान से हो रहे हैं मैं शुद्ध हूँ , बुद्ध हूँ , निरंजन हूँ, यह भेदविज्ञान नहीं हैं भेदविज्ञान से तात्पर्य 'पृथक् स्वरूपोऽहं', मैं सबसे भिन्न हूँ ऐसी श्रद्धा जम जाए और फिर कोई आपके घर में आग लगा जाए, तब देखो, भैया! घर जल गया, दिख रहा है; सब नष्ट हो गया, दिख रहा है, कुछ भी नहीं बचा, समझ रहा हूँ अहो! जिस दिन इतनी क्षमता आ जाएगी, उसका नाम है भेदविज्ञानं भो ज्ञानी! भेदविज्ञान के लिए आत्मा का अनंतबल चाहिएं एक भेदविज्ञान चतुर्थ गुणस्थान वर्तीजीव का सम्यक्त्व के सम्मुख मिथ्यात्व दशा में करोगे और दूसरा भेदविज्ञान आप छटवें गुणस्थान में करोगे, तब तुम सप्तम गुणस्थान में प्रवेश करोगें एक मिथ्यात्व को विगलित करने की भूमिका में भेदविज्ञान होगा, एक श्रेणी के सन्मुख होगा, यानि सातिशय अप्रमत्त दशा की प्राप्ति करेगां वहाँ भी करण परिणाम होते हैं यह करण परिणाम दो जगह होते हैं, मिथ्यात्व का विगलन करते तथा श्रेणी में चढ़तें आठवें गुणस्थान में चढ़ते हैं, तब करण परिणाम होता हैं यहाँ मिथ्यात्व के दो टुकड़े किये थे वहाँ भेदविज्ञान चारित्रमोहनीय के टुकड़े कर रहा हैं भेद विज्ञान यह कहता है कि बच्चे को बुखार आ रहा है तो उपचार तो करवाना लेकिन बच्चे की मृत्यु हो रही है तो रोना मतं यह भेदविज्ञान हैं भेदविज्ञान निर्दयता नहीं सिखातां भेदविज्ञान यह कहता है कि उपचार करिये, उसकी रक्षा करिये, लेकिन चला ही गया तो अब कहो 'पृथक् स्वरूपोऽहं' तो 'शुद्धोहं बुद्धोह' के पहले 'पृथक् स्वरूपोऽहं' सीख लेनां जब तक 'पृथक् स्वरुपोऽहं पर दृष्टि नहीं जाएगी तो, भो ज्ञानी! भेदज्ञान भी नहीं होगां दीप्तिमान सूर्य (सोलह सपने) Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy