SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 338 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 इसलिए ध्यान रखो, सत्य यही है कि जब तक श्रावक त्याग नहीं करेंगे, तो मुनिराज कैसे बनेंगे? अतः सबसे पहले दस प्रकार के परिग्रह का त्याग श्रावक करते हैं, तभी मुनिराज बन पाते हैं और वे ही फिर अंतरंग परिग्रह को छोड़ पाते हैं अहो! वास्तविकता समझों यह खुशी ऊपर से है, पर अंदर शांति नहीं हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री एक दिन आए और कहने लगे- महाराजश्री! एकांत में थोड़ी चर्चा करना हैं सोचा, पता नहीं क्या बोलेंगे ? आँखों में आँसू भरकर बोले- महाराजश्री! धन है, वैभव है, यश है, कीर्ति है, पर शांति नहीं है, आप शांति का उपाय बता दो मैंने कहा कि शांति का उपाय तीर्थंकर महावीर स्वामी के पंचशील में अंतिम शील अपरिग्रह हैं अहो! यदि शांति चाहते हो तो परिग्रह का परिमाण कर लों भो ज्ञानी! एक व्यक्ति कह रहा था, महाराजश्री! यह सबकुछ सुना, समझा कि मात्र आत्मा को विशुद्ध बनाकर चलो, पर-द्रव्य से कुछ नहीं होता है परंतु यह तो समझ में नहीं आया कि परिग्रह भी पाप हैं अमृतचंद्र स्वामी ने कहा-जब तक परिग्रह रहेगा, तब तक स्वद्रव्य की प्राप्ति नहीं होगी भो ज्ञानियो! प्रज्ञा, वैभव, विभूति से यदि मोक्ष मिलता होता, तो सौधर्मइंद्र जैसी वैभव-विभूति किसके पास है ? एक सौ सत्तर तीर्थकर भगवंतों के पंचकल्याणक मनाता है, कितनी व्यवस्थाएँ करता है, इसका पुण्य कितना बड़ा होगा ? मुद्दे की बात करो, सर्वार्थ सिद्धि के देव पूरे तैंतीस सागर तक तत्त्व चर्चा करते हैं इससे ध्वनित होता है कि तत्त्वचर्चा से परिणामों में भद्रता आती है, विशुद्धि बढ़ती है; लेकिन निर्वाण की प्राप्ति नहीं होतीं यदि तत्त्वचर्चा से मोक्ष हुआ होता तो सर्वार्थसिद्धि के देव को कितना चलना था? सिद्धिशिला और सर्वार्थसिद्धि में एक बाल के बराबर अंतर है, फिर भी सिद्धों- जैसा सुख उन्हें नहीं हैं वे वहाँ बैठे-बैठे निहारते हैं और फिर से वहाँ से च्युत होकर सात राजू नीचे गिरना होता हैं यहाँ से फिर निग्रंथ वीतरागी जैनेश्वरीदीक्षा धारण कर "अहिमिक्को खलु शुद्धो" का पाठ करता है, तब वह सिद्ध बन पाता हैं इसलिए तत्त्व-चर्चा सत्व की प्राप्ति के लिए है, पर शाश्वत-सत्ता की प्राप्ति संयम से ही होती है, परिग्रह से त्रैकालिक संभव नहीं हैं नीषियो! दृष्टि खोलकर सुनना कि जब तक धागा मात्र भी रहेगा, तब तक अहिंसा का पालन नहीं होगा और हिंसक कभी मोक्ष नहीं जा पाएगां इसलिए स्वरूप की चर्चा का निषेध नहीं, आत्मा की चच निषेध नहीं; परन्तु जो जन्म दे रही है वह 'बाई और जो जन्म दिला रही है, वह 'दाई में इतना ही अंतर होता है कि जो आत्मा को जान रहा है वह बाई और जो जनवा रहा है वह दाई हैं समझ लो, वेदन किसका कैसा है ? __ भो ज्ञानियो! शास्त्रों को समझ लेने का नाम तत्त्वानभति नहीं हैं यह तत्त्वानभति तो संयम की परिणति हैं ज्ञान ज्ञान-गुण की पर्याय है और श्रद्धान, दर्शन-गुण की पर्याय है, अनुभूति चारित्र गुण की पर्याय हैं भो ज्ञानी! ज्ञान तो करना चाहिए, क्योंकि अमृतचंद्र स्वामी ने क्रम से कथन किया है कि ज्ञान मानव-जीवन का ____Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy