SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 310 of 583 ISBN # 81-7628-131- 3 v-2010:002 "परधनपाषाणवत्" असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम्106 अन्वयार्थ : ये = जो लोगं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम = दूसरों के कुआँ, बावड़ी आदि जलाशयों के जल आदि को ग्रहण करने का त्यागं कर्तुम् असमर्था = करने को असमर्थ हैं तैः अपि = उन्हें भी अपरं समस्तम् = अन्य संपूर्ण अदत्तं = बिना दी हुई वस्तुओं कां नित्यम् परित्याज्यम-हमेशा त्याग करना योग्य है यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात्107 अन्वयार्थ : यत् = जों वेदरागयोगात् = वेद के रागरूप योग सें मैथूनं अभिधीयते = स्त्री पुरुषों का सहवास कहा जाता हैं तत् अब्रह्म = सो अब्रह्म हैं तत्र = उस सहवास में वधस्य = प्राणी वध का सर्वत्र = सब जगहं सद्भावात् = सद्भाव होने से हिंसा अवतरति = हिंसा होती हैं भो मनीषियो! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने आत्मा के गुणों का कथन करते हुए संकेत दिया है कि ज्ञानीजीव पर सम्पत्ति को लोष्ठवत् मानता हैं लोष्ठ यानि पाषाणं अतः परद्रव्य पाषाण के तुल्य होता हैं पर द्रव्य का हरण अपने धर्म का विनाश है, शांति का नाश है; क्योंकि द्रव्य का हरण ही नहीं होता अपितु निज की शांति का भी विनाश होता हैं जब व्यक्ति छल से परद्रव्य को ग्रहण करके आता है, तब विकल्प यह होता है कि कोई देख न ले, अतः उसका शांति से उपभोग भी नहीं कर पातां Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy