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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 240 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 सकते हैं कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कच्चे आलू तो नहीं खाते हैं पर चिप्स खाते हैं, बोले, रात्रिभोजन का त्याग होता है तो फलाहार कर लेते हैं भो चैतन्य आत्माओ! जीवों का पिन्ड था, वही तो सूख गयां इसलिए धर्म का पालन तो करना, लेकिन उसमें कोई बहाना मत निकाल लिया करों सुनो, हरी का त्याग है, और नीबू भी हरी में आता हैं कुछ लोग नीबू, केले को हरी नहीं मानते, क्योंकि वह रंग से हरा नहीं होता है, परंतु वह सत् से हरा माना जाता हैं चाहे आम हो या केला हो, हरा ही हैं यह जो भुट्टा खा रहे हो, यदि आपका नियम दो हरी का और दो अनाज का है, तो भुट्टा एक अनाज भी हो गया और एक हरी भी हो गयां अहो! बड़े चतुर हो, दूध का त्याग है, इसलिये मावा तो चल सकता हैं अहो! आपने रसना-इंद्रिय की विजय के लिए त्याग किया था या मात्र खाने के लिए त्याग कियां जिसने गो-रस का त्याग किया, वो न दूध ले सकता है, न मावा, न घी ले सकता है, न छाछ ले सकता है, परंतु घी का त्यागी दूध ले सकता हैं दही का त्यागी दूध ले सकता हैं पर ध्यान रखना, तुम्हारी मायाचारीवाली छाछ नहीं, आपने एक ग्लास दही लिया, उसमें थोड़ा-सा पानी मिला दिया और चम्मच से घुमा दिया, लो बन गयी छाछं भो ज्ञानी ! छाछ यानि मठां जिसमें से मक्खन निकाला जा चुका है, वो छाछ हैं जो बिलकुल तरल हो चुका है, उसको ही स्वीकार करना भो ज्ञानी! ध्यान रखना, यह रूढ़ियों का धर्म नहीं हैं यह तात्विक, सैद्धांतिक एवं वैज्ञानिक तत्त्वों से समन्वित धर्म हैं यदि श्रमणाचार और श्रावकाचार की चर्या के अनुसार जीव चले तो रोग तुम्हारे घर में कभी नहीं आएँगें माँ-जिनवाणी कह रही है, बेटा! पेट के चार भाग कर लो, मौसम के अनुसार, एक भाग में तरल, दो भाग में खाद्य तथा एक भाग खाली ग्रीष्मकाल में एक भाग में भोजन, दो भाग में तरल तथा एक भाग खाली वर्तमान में बारिश चल रही है, ऐसे में गरिष्ठ भोजन अर्थात् जो सामग्री आपको नहीं पचती है, उसे भी जो खाता है, वो अभक्ष्य ही खाता हैं जिनवाणी कहती है, कि आपको हलुआ नहीं पचता है, फिर आप जबरदस्ती खाते हो तो आप अभक्ष्य खाते हो, क्योंकि वह आपके शरीर को अस्वस्थ करेगा और शरीर अस्वस्थ होगा तो साधना अस्वस्थ होगी अहो! इस पुद्गल की रक्षा करना, जब तक तू निष्पृह भगवती-आत्मा को प्राप्त न कर ले; लेकिन राग दृष्टि से नहीं शरीर को चलाने के लिए बहुत कुछ खाने की आवश्यकता नहीं; परंतु इंद्रियों की लिप्सा के लिये संसार में बहुत कुछ खा सकते हों भगवान् समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है, "अल्प-फल बहु विघातान" अर्थात् जिसमें फल अल्प हों और विघात ज्यादा हों बेर, मकुईयाँ सुखा-सुखा के रख लिया, बरसों तक चलता हैं अचार डाल दिया, मुरब्बा बना लिया, इसमें त्रसजीव पड़ जाते हैं मर्यादा के बाहर अचार और मुरब्बा का सेवन जो करता है, वह अपने आप को माँस एवं मदिरा से अछूता न समझें अहो! नरक के चार द्वार संधान, रात्रि-भोजन, सुरापान, और पर-स्त्री-सेवन ये ही तो हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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