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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 239 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 हैं और सहानुभूति-सी दिखाकर चले जाते हैं; लेकिन ध्यान रखो सगा भाई इनसे अलग ही होता है ऐसे ही भगवती–आत्मा को जो सगा है, वे दो हैं, एक ज्ञान और दुसरा दर्शनं उसे आप भूल रहे हों मनीषियो ! ध्यान रखना, अंतिम दशा में अंतिम अवस्था में क्रोध काम में आनेवाला नहीं हैं लोभ, मान, माया काम में नहीं आयेगीं जब आत्मा शुद्ध बनेगी तो तेरा ज्ञान - दर्शन ही काम में आएगां इसलिए जो तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगा, उसके साथ जुड़ों सुहावने शरीर को पाकर जो देह आपकी आज नजर आ रही है, भो ज्ञानी! पता नहीं वह कब धोखा दे दें अतः भगवान् अमृतचंद्रस्वामी कह रहे हैं, तीर्थेश की देशना वही सुनें, जिसकी बुद्धि सुबुद्धि हों हे सुधी आत्माओं अपना कल्याण चाहते हो तो राग - बुद्धि को छोड़ दों पयूर्षण आएगा तब हरी नहीं खाएँगे, इसलिये सुखाकर रख रहे हैं अहो, ज्ञानी आत्माओ! कब खाओगे और क्या मालूम कि खाओगे या नहीं खाओगे? लेकिन कर्म का आस्रव तो तब से शुरू कर दिया, जिस दिन से आपने सोचना प्रारंभ किया जबकि अभी तो खरीदा ही नहीं है, परंतु सुखाना सामने खड़ा हो गयां कभी कभी व्यर्थ में ही कर्म को बुलाते हों अतः विवेक लगा लो तो बहुत से कर्मआस्रव से आप बच जाओगें पर आवश्यकता निर्मल चिंतन की हैं आप शुद्ध बोलते-बोलते कुछ व्यर्थ शब्द बोलते हो, जैसे "फल-मल सब खा लिये" बात को पकड़ना कि व्यर्थ शब्द जोड़कर आपने कितना गलत शब्द बोल दिया हैं हम मनुष्य हैं, मल नहीं खाते हैं, तो यह 'मल' शब्द आपने क्यों बोल दिया अलग से? संपादक तो कागज पर कलम चलाता है, लेकिन योगी निज भावों को शब्दों में लाने पर ही संपादित कर लेता है, और वाणी में तो संपादित-वाणी ही आती हैं पंडितप्रवर दौलतरामजी ने लिखा है - "जिनके वचन मुखचंद्रतें अमृत झरे" जो इस भावना से ओतप्रोत होकर निर्विकल्पभाव में लीन होता है, तो वह शब्दों का श्रावक नहीं कहलाता, चर्या का योगी बन जाता हैं लेकिन आँखों का खोलना, बंद करना, मुख से "अहा' बोलना, ये बाहरी क्रियायें हैं"" भो ज्ञानी! तुम देशना सुनने के पात्र तब होगे, जब तुम्हारी आत्मा अष्टमूल गुणों के संस्कारों से संपादित हो जाएगी अतः इतनी तो योग्यता तो रख लेना कि कहीं भी जाओ तो कह सको कि मैं जिनेंद्र की वाणी सुनने की योग्यता रखता हूँ एक दिन ऐसा भी आएगा जब आप वाणी देने की भी योग्यता रखोगे ? क्योंकि तब आप संयम से समन्वित हो जाओगें फिर आपके मुख से भाषण नहीं होंगे, फिर आपके मुख से प्रवचन ही होंगें "प्रकष्ट वचनं इति प्रवचनं" जिसने भाषासमिति को स्वीकार कर लिया है, वचनगुप्ति को स्वीकार कर लिया है, अब उसको शैली बनाने की क्या आवश्यकता है ? इसलिए जो भावों से उत्पन्न हो, जिनेंद्र की वाणी से समन्वित हो, वही प्रवचन हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि ऐसी देशना सुनने का पात्र वही होगा जो अष्टमूलगुण से युक्त हों आपने जिज्ञासा प्रकट की कि उदम्बर फलों के त्याग की बात ठीक है, हम गीले नहीं खाएँगें भो ज्ञानी! चाहे वह सूखा कलेवर हो, चाहे वे माँस के टुकड़े हों, ध्यान रखना, यह कोई सूखे केले के चिप्स नहीं है फिर तो कल आप ये भी कहेंगे कि माँस के टुकड़ों को सुखाकर भी खा Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com -
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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