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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 230 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 प्रभु-शक्ति भी हैं उस शक्ति को उद्घाटित करनेवाले रत्नत्रय-ध्वज को तो तुझे ही फहराना पड़ेगां सैनिक भी तू ही होगा, शंखनाद भी तेरा होगा; परंतु शत्रु तू नहीं होगा; शत्रु पर ही होते हैं एक-सौ- अड़तालीस तो सम्राट हैं, जिनसे तुझे जूझना है, लेकिन असंख्यात् लोक-प्रमाण उनके अनुचर हैं ध्यान रखना, शत्रु बाहर से कभी भी सेना लेकर नहीं आता, देश के अन्दर ही जो आपसे नाखुश हैं, वे ही आपके शत्रु होकर शत्रु की सेना के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं भो ज्ञानी! तुम्हारे देश में जो अंग्रेज आये थे, वह कितने-से आये थे ? वह तो व्यापारी थे, लेकिन आपको ही परिवर्तित किया था; परस्पर में ही लोगों को ज्यादा कषाय थीं अहो! बाहर के शत्रु कम होते हैं, अन्दर के शत्रु जो मित्र बने होते हैं, वे ही परिवर्तित होकर शत्रु का रूप बना लेते हैं कार्माण-वर्गणाएँ कर्मरूप होने के लिए बाहर से बहुत कम आती हैं जो तेरे पास पुण्यरूप वर्गणाएँ होती हैं, वे पुण्य-वर्गणाएँ ही तेरी अशुभ-परिणति से पापरूप संक्रमित हो जाती हैं और वे ही पापरूप में उदय में आकर फल देना प्रारंभ कर देती हैं देखिए, प्रबल पुण्यात्मा जीव के पास पाप-वर्गणाएँ कम आती हैं, लेकिन प्रबल पुण्य के योग में तुमने अशुभ-कर्म करना प्रारंभ किया, अतः वह सारा-का-सारा तुम्हारा पुण्य-द्रव्य पापरूप संक्रमित हो गयां शत्रु की अल्प सेना ने आपको परास्त कर दियां मनीषियो! राम अयोध्या से कितने लोगों को लेकर रावण से युद्ध करने के लिये गये थे? लेकिन उनके पुण्य की प्रबलता ने तीन के कितने कर दिये? ऐसे ही मुमुक्षु जीव अल्प पुण्य के योग में प्रबल पुण्य कर लेता हैं भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि उस द्रव्य को देखो, उस विभुत्व-सत्ता को देखो, अपने आपको पराधीन मत मानों आप अभी एक-सौ- अड़तालीस सम्राटों से परतंत्र हों जिस दिन आप स्वतंत्र हो जाओगे, सिद्ध बन जाओगें अरे! बाँस की जड़ों में उतना घुमाव नहीं होता, जितना हमारी परिणति में घुमाव होता हैं प्रभु! मैंने आपके चरणों में अनुपम दृश्य देखा-चोर तो बदल गया, पर अर्धागिनी का हृदय चोर बन गया था जिसे तुम अर्धागिनी कह रहे हो, जिसके पीछे तुम पूरे जीवन को बर्बाद कर रहे हों प्रभु! तेरा स्वतंत्रता- दिवस उसी दिन मनेगा, जिस दिन परिवार से स्वतंत्र हो जायेगां भो ज्ञानी! सत्य पर विश्वास तभी मानकर चलना, जब स्वयं पर विश्वास हों भो मनीषी! यहाँ क्यों बैठे हो? अभी तक तो आपके हाथ में पिच्छी-कमंडल आ गये होते, परन्तु आपको स्वयं पर विश्वास नहीं हैं ध्यान रखो, संयम का इतना सुहावना जीवन आप स्वयं की आँखों से देख रहे हो, तभी तो झुक रहे हो, लेकिन विश्वास कमजोर हैं ऐसा नहीं है कि आप लोग जानते नहीं हों जानते भी हो और मानते भी हो, लेकिन कर नहीं पा रहे हों कौन-सी वस्तु है जो आपके चलने के लिये पकड़े हुए हैं अहो ज्ञानियो! आपने जान लिया कि वह वस्तु मोह हैं अब तो आपको रोग भी पकड़ में आ गयां अब ठीक क्यों नहीं हो रहा है? जब मोह-रोग तुम्हें पकड़ में आ गया है तो औषधी खा लों तीन पुड़ियाँ हैं-सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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