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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 195 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि चिन्तन से गहराई में देखना कहीं दिगम्बर योगी बनकर ऐसा चिन्तवन कर लिया होता, तो आज तुझे मुक्तिश्री का वरण हो गया होता अहो! कितना विवेक लगाते हो कि अमुक द्रव्य को यहाँ से खरीदूंगा, वहाँ बेचूँगा, फिर ऐसा करूँगां तू ऐसा क्यों नहीं सोचता कि ऐसे भाव होंगे तो ऐसे भाव करूँगा? भो ज्ञानी आत्माओ! तुम क्यों कमा रहे हो ? जिन लोगों को देना है उन लोगों को देककर चले जाओगे ? तुम व्यर्थ में हिंसा का बंध करके नरक-निगोद की वंदना करोगे पुत्र के निमित्त से, स्त्री के निमित्त सें स्वयं का पेट भरने के लिए बहुत कुछ नहीं चाहिएं अपने जीने के लिए बहुत हिंसा भी नहीं करनी होती है, परंतु पता नहीं कितने पेटों की चिंता है? जबकि वे पेट भी जब बने थे तो पहले से अपने पेटों की व्यवस्था करके आये हैं भो ज्ञानी! यदि पिता ने पुत्र को जन्म दिया है तो पुत्र ने पिता की संज्ञा को जन्म दिया है, इसलिए किसी अहम् में मत डूबे रहनां आप तो पुण्य की परिणति देखो, पाप की परिणति को देखां अहो! जिस समय अहम् के सताये हुए को कुछ नहीं दिखा तो अपनी कन्या का कुष्ठरोगी के साथ संबंध कर दियां स्वयं पिता की आँख से आँसू टपक गए, बेटी! मैंने तेरे साथ क्या कर दिया ? आप होते तो छोड़कर के भाग जाते या तलाक दे देतें ओहो! तुमने भोगों के पीछे, इन्द्रिय -सुख के पीछे संस्कृति व धर्म का नाश कर डालां भो ज्ञानी! जिसकी दृष्टि में जिनवाणी छा गई है, उसे दूसरे की छाया की कोई आवश्यकता नहीं हैं जिसके शीश पर जिनेंद्र की वाणी का आशीष है, उसको दुनियाँ के आशीष की कोई आवश्यकता नहीं पिता ने संबंध तो कर दिया, पर बेटी समझाती है-पिताश्री! शोक मत करो, आपका दोष नहीं हैं होनहार को कौन टाल सकता है? आप तो मेरे जनक हैं, आपने तो मुझे पालन-पोषण करके इतना बड़ा कियां आप मेरा बुरा सोच ही कैसे सकते थे? यह तो कर्म की विचित्रता है, इसीलिए ऐसा हो गयां अब तो आप शीघ्रता करो, मेरी विदा कर दों पतिदेव (कुष्ठरोगी) के साथ मैं अपना भाग्य सराहूँगी कि मुझे सेवा करने का मौका तो मिलेगां दुखियों के मध्य रहूँगी, तो प्रभु की याद आयेगीं पिताश्री! यदि पुण्य का योग होगा तो यह कुष्ठी भी स्वर्णमयी यक्त मिलेगां इतनी दृढ आस्था के साथ जनक-जननी को बिलखते छोड, सात-सौ कष्ठियों की सेवा में लीन हो गयीं पहुँच गयी निग्रंथ योगी के चरणों में, हे प्रभु! यह नहीं पूछ रही हूँ कि मैंनें कौन-से कर्म किये थे, वह तो सामने दिख रहे हैं लेकिन, नाथ! इन कर्मों के शमन का उपाय क्या है ? बेटी! असाता को साता में संक्रमित करने का कोई उपाय है तो मात्र पंचपरमेष्ठी की भक्ति-आराधना हैं यदि अरिहंत-सिद्धों की भक्ति निर्दोष करोगी और गंधोदक को शीश पर लगाओगी तो कुष्ठ भी साफ हो जायेगां अतः विकल्प मत करों वही सिद्धचक्र-विधान आज भी हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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