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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 150 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आ रही हो, बस इसी का नाम संयम हैं अरे! विश्व को खुश करना बड़ा सरल है, पर अपने आप को प्रसन्न वही रख सकता है, जिसका चारित्र निर्दोष रहता हैं चारित्र के मिलने से साम्य-भाव उमड़ता है जिसमें न कोई शत्रु दिखता है न कोई मित्र, न सम्यक् में भेद दिखता है, न ज्ञान का भेद दिखता हैं वहाँ सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र एकसाथ टपकता हैं भो ज्ञानी! यदि आप अपने संयम को सुरक्षित रखना चाहते हो तो चित्त को पवित्र रखो चित्त की पवित्रता से ही चारित्र की पवित्रता होती हैं यदि चित्त पवित्र नहीं है तो चारित्र पवित्र रख पाना किसी के वश की बात नहीं हैं चारित्र तो निर्मल है, पर चित्त भागता है, तो विकारों को उद्वेलित कर देता है और विकार उद्वेलित होने पर आचार खोखला होना प्रारंभ हो जाता हैं अतः जब-जब आचार खोखला होता है तो विचारों से ही होता हैं जिनेन्द्र के शासन में प्रवचन को इतना महत्व क्यों दिया जाता है? क्योंकि बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति तीर्थकर-प्रकृति के बंध के हेतु हैं जिसके जीवन में प्रवचन की भक्ति नहीं है, वह तीर्थकर-जैसी-पुण्य-प्रकृति की अवहेलना करता हैं इस वीतरागवाणी का नीर जिस भूमि में पहुँच जाता है, वहाँ चारित्र के अंकुर प्रकट होना आरंभ हो जाते हैं मनीषियो, कषाय के उपशमन का नाम ही चारित्र हैं जब कषायें उपशमता को प्राप्त हो जाती हैं तो विकार दब जाते हैं, जब विकार दब जाते हैं तो ब्रह्म-भाव उत्पन्न हो जाता है, कुशील-भाव छूट जाते हैं इसी का नाम चारित्र-भाव हैं अरे! जिसके जीवन में चारित्र के प्रति अनुराग नहीं आ रहा है, भूलकर भी उसे सम्यकदृष्टि घोषित मत कर देनां भो ज्ञानी! ज्ञानी की दशा एंटिना के समान होती है और चारित्रवान् की दशा टेलीविजन के समान होती हैं ज्ञान को तत्त्व की बात को पकड़ने हेतु बुद्धि का विषय बना लेता है, परंतु संयमी चित्त और चारित्र का विषय बना लेता है, क्योंकि एंटीना का काम तरंगों को पकड़ने का है! पर कौन सी तरंग में कैसा चित्र था, यह तो टेलीविजन ही दिखा पाता हैं ऐसे ही जिनवाणी की तरंगों को पकड़ना विद्वान् के ज्ञान का विषय है, एंटीना का विषय है, बुद्धि के तंत्रों का विषय है; परंतु उस जिनवाणी में प्रसारित वर्गणाओं का दृश्य कैसा ह एक योगी प्रकट कर सकता हैं प्रचारक तो प्रचार कर देता है, परंतु पालन करने वाला तो कोई तीसरा ही होता है, उसका नाम मुमुक्षु अथवा योगी होता हैं इसलिये, प्रचारक व विचारक से जो उपर उठा होता है, उसका नाम चारित्रवान होता हैं मनीषियो! तो शब्द प्रवक्ता से प्राप्त किये जा सकते हैं, बाहर के गुरु से मिल सकते हैं, परन्तु आत्म-सिद्धि की प्राप्ति आत्म-गुरू से ही होती हैं ये शब्द जड़ की क्रिया है, आत्म धर्म चैतन्य का धर्म हैं __ भो ज्ञानी! एकत्व होकर निर्ममत्व के लिये सुनना, निर्मोही होकर सुननाः, क्योंकि श्रद्धा अनन्त पदार्थों की होती है, ज्ञान अनन्त पदार्थ का होता है, चारित्र मात्र एक का होता हैं उसका नाम शून्य हैं आप लोग जिस विषय के ज्ञानी हो, योगी उस विषय के अज्ञानी ही होते हैं विश्व में यदि किसी का विशाल अस्तित्व है Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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