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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 149 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 भो ज्ञानी! ज्ञान कह रहा है कि मुझे मत जानो, मेरे से तुम जान लों जैसे, दीपक कहता है कि मेरी लौ को मत देखो, मेरे द्वारा देख लों जो दीपक को देखता है, वह कभी अभीष्ट प्राप्त नहीं कर पाता, पर दीपक के माध्यम से जो देख लेता है, वह अपनी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त कर लेता हैं दीपक कब तक जलाते रहोगे ? मनीषियो ! तुम शास्त्र को कहाँ तक पढ़ते रहोगे ? तुमने जानने योग्य को आज तक नहीं जाना, जानने में अनन्त भव व्यतीत कर दियें लगता है कि दीपक को ही देखा है, दीपक से नहीं देखां अहो! प्रकाश में पदार्थ को देखने के लिये प्रकाश किया जाता हैं ज्ञान कहता है कि मुझे मत देखो, मुझे मत जानो, मेरे से तुम अपने कल्याण को जान लो; मोक्षमार्ग को जान लो मुझे जानते ही रहोगे तो ध्यान रखना, कुछ भी सिद्ध नहीं होगां हाँ, इतना अवश्य है कि ज्ञान से कीर्ति फैलती है, श्रद्वान से देवत्व की प्राप्ति होती है; चारित्र से पूज्यता की प्राप्ति होती है; लेकिन तीनों की एकता से निर्वाण की प्राप्ति होती हैं अतः कीर्ति चाहिये तो ज्ञानी बन जाओ, देवत्व चाहिये तो पंचपरमेष्ठि की श्रद्धा करो, पूज्यता प्राप्त करना है तो पिच्छी-कमण्डल ले लो; लेकिन निर्वाण की प्राप्ति चाहिये तो तीनों एकसाथ होना चाहिये भो चेतन! ज्ञानहीन- क्रिया विनाश का कारण होती है और क्रियाहीन का ज्ञान भी विनाश का कारण होता हैं ज्ञानशून्य - चारित्र अंधा है और चारित्रशून्य-ज्ञान लंगड़ा हैं संसार जंगल में विषय कषाय की अग्नि लग रही हैं एक देखते-देखते झुलस रहा है, दूसरा दौड़ते-दौड़ते झुलस रहा है; लेकिन दोनों बच सकते हैं यदि अंधे के कंधे पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों की रक्षा हो जायेगीं मनीषियो! ज्ञान लंगड़ा है और चारित्र अंधा हैं दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों मिल जायें तो विषय कषाय की अग्नि से बच जाओगें मनीषियो ! इस गाथा में आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि चारित्र अनुपम निधि है, क्योंकि आपकी पहचान ज्ञान व श्रद्धान से नहीं, चारित्र से होती हैं जब तुम पानी पियोगे तो छन्ना लगाओगे, तुम भोजन करोगे तो शोधन कर करोगे, तो लोग आपसे कहेंगे कि आप जैनसाहब हों यहीं से आपके चारित्र की शुरूआत होती हैं जिनवाणी में इसे ही सम्यक् आचरण अथवा समीचीन आचरण कहा हैं जिस प्रकार संकुचित होकर पालने में रहने से बालक जमीन पर गिरने से बच जाता है, इसी प्रकार तुम भी संयम के पालने में सोना, लेकिन असंयम की भूमि को देखकर पैर को संकुचित कर लेना माँ जिनवाणी कह रही है कि चारित्र को स्वीकार करने से पहले तुम कछुआ बन जाना, क्योंकि कछुआ जब देखता है कि कोई मेरा शत्रु है, तो वह हाथ-पैर और सिर को इतना संकुचित कर लेता है कि कोई पता ही नहीं चलता कि पत्थर पड़ा है या मिट्टी का पिंडं ऐसे ही, मनीषियों! तुम्हारे जीवन में विषय-कषाय रूपी शत्रु सामने आयें तो अपनी इंद्रिय और मन को इतना संकुचित कर लेना कि कितने ही शत्रु निकल जायें पर पता ही नहीं चलें यदि आपके पास कछुए की दृष्टि नहीं है तो चारित्र का पालन संभव नहीं चारित्र की सिद्धि मन से अथवा चित्त से प्रारंभ होती हैं जब हमसे कोई गलती होती है तो हम अपने आप में अपने आपके प्रति प्रसन्न नहीं होतें संयम यह कहता है कि जिस जीव को स्वयं से स्वयं की प्रसन्नता Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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