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________________ रोहिणिया चोर मगध देस की राजधान्नी राजगीर मैं रोज-रोज चोरी होया करती । कद्दे किसे कै, कद्दे किसे कै । ओड़े के लोग घणे दुखी हो रे थे। सब तै घणे दुखी थे-ब्योपारी । ब्योपारी जिब छिक कै दुखी हो लिए तो उन नैं एक दन राज्जा सरेणिक आग्गै पुकार करी-“म्हाराज! हम तै चोरियां नै खा लिए। पहलां तै ईसी चोरी ना होया करती। चोर सारा माल ठा कै ईसे भाज्जै सैं, अक टोहे कोन्यां पाते । इतणे ऊत सैं, अक आपणा एक भी निसान कोन्यां छोडदे, कदे कोए माड़ा-मोट्टा बेरा-ए काढ़ ले । जै ये चोरी न्यूं-ए होती रही, तो एक दन हम सारे के सारे मंगतां की तरियां, गाल्लां मैं भीख मांगदे हांडेंगे।" या बात सुणकै राज्जा नै ताज्जब होया। भितर-ए-भित्तर ओ सोचण लाग्या- मेरे दरबारी ते गाते-गाते कोन्यां छिकते, अक परजा मोज ले रही सै। किस्सै नैं सूई जोड दुख भी कोन्यां । कोए तै ईसा होंदा जो साच्ची बतांदा । आडै तै सारे कुएं में ऐ भांग पड़ ही सै। राज्जा नैं ब्योपारी समझाए । उन तै चोरां नैं पकड़ण की तसल्ली दी | ब्योपारी चले गए। ब्योपारियां के जाते हैं राज्जा नैं सहर का कोतवाल बलाण खातर, आपणे एक नोकर हाथ हुकम भेज्या । हालों-हाल दरबार में हाज्जर होण का हुकम सुण कै कोतवाल की फूंक सरक गी । लत्ते-कपड़े पहर कै नैं ओ जिब्बै ऐ भाज्या । राज्जा धोरै पहोंच्या । राज्जा नैं उस तै ब्योपारियां की चोरी बाबत सुआल बूझे । रोहिणिया चोर/29
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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