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________________ ह्याल्लु राज्जा भोत पराणी बात सै | पुण्डरीकणी नां की एक नगरी थी । ओड़े के राज्जा थे- धरमरथ । वे न्यां करण आले, दया करण आले अर बहादर राज्जा थे । राज्जा के दो छोरे थे। एक का नां था- मेघरथ, दूसरे का थादृढ़रथ । दोन्नू छोरां मैं बाप के गुण थे। एक दन राज्जा नैं भरे दरबार में घोसणा करी- ईब मैं बूड्ढा हो लिया । राज-काज तै ईब मैं छूटणा चाहूं सूं । न्यूं सोचूं सूं अक, बचे होए टैम में धरम-करम करण की कोसिस करूं । संजम (सिन्न्यास) की राही चाल्लूं । दोन्नूं राजकमार लायक सैं । थम जिसनै कहो, उस्से नै राज्जा बणा दें।" राज्जा की बात सुण के दरबारी राज्जी हो गे। सारे कट्टे बोल्ले, "म्हाराज ! धन्न सै आपनैं । आच्छे राज्जा की या हे पिछाण होया करै । आपणे बालकां नैं काब्बल बणा दे अर बची होई जिन्दगी धरम-करम मैं बितावै । दोन्नूं-ए राजकुंवार तारीफ के लायक सैं । गद्दी देण की बात आई ते गद्दी का पहला हक तै बड्डे राजकुंवार का ए होया करै सै । या हे रीत सै । आग्गै जीसी थारी मरजी ।" "थमनैं सोला आन्ने ठीक राय दी सै | ईब गद्दी पै मेरी जंगा मेघरथ मैं ए बैठणा चहिए।" राज्जा नैं मेघरथ ताही राज्जा बणा दिया । परजा मेघरथ बरगे लायक न्यां करण आले अर मन के मुताबक राज्जा नैं पा कै निहाल हो गी । हरियाणवी जैन कथायें/14
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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