SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आशय यह कि चोरियों से हमें इतनी पीड़ा हो रही हैं जितनी किसी जानवर द्वारा खा लेने पर होती है । घनीभूत पीड़ा की यह अभिव्यक्ति हरियाणवी की अपनी विशेषता (जो शेष में नहीं ) है । 'छिमा की मूरत' का अर्जुन माली जब प्रतिदिन न्यूनतम छह पुरुषों और एक स्त्री को मारने लगा तो " सारी नगरी मैं रोहा-राट माच ग्या ।” तुलना करके देखा जा सकता है कि हिन्दी के 'हाहाकार' से हरियाणवी का 'रोहा राट' शब्द कितना अधिक कारुणिक व मार्मिक है! 'अनाथ कुण सै' में राजा की गर्वोक्ति है- “मैं ते आपणी परजा का नाथ सूं अर कती लोह-लाठ ।” यहां 'लोह - लाठ' भी हरियाणवी का पूरी तरह अपना प्रयोग है । इतना सशक्त और प्रभावशाली प्रयोग है यह कि “कत्ती लोह-लाठ!" इन सभी प्रयोगों के विषय में यह कहना कदाचित् आवश्यक है कि इनमें से एक भी 'प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं किया गया है और न ही अपना हरियाणवी पांडित्य पदर्शित करने के लिए कहानियों में इन्हे बलात् दूँसा गया है। कथा-प्रवाह में ये सभी प्रयोग इस प्रकार आये हैं कि इनके आने का अलग से आभास तक नहीं होता। कहानियों के रूप-विधान हेतु ये प्रयोग उनके लिए इतने अनिवार्य बन पड़े हैं कि कहानियों के साथ अन्याय किए बिना इन्हें उन से अलग नहीं किया जा सकता। यही है टेट हरियाणवी का ठाठ । शब्द चयन से लेकर वाक्य गठन तक, स्थिति वर्णन से लेकर संवाद-योजना तक, कथानक से लेकर चरित्र-निर्माण तक और वातावरण-चित्रण से लेकर व्यंजक भाषा तककथा-रचना का एक भी पक्ष ऐसा नहीं, जिसकी दृष्टि से इन कहानियों को कमजोर कहा जा सके । ऐसा बहुत कम होता है कि किसी भाषा में पहले-पहल (गद्य-रूप) कहानियों की रचना हो और वह भी अत्यधिक सजग निपुणता के साथ! यह दुर्लभ उपलब्धि इस पुस्तक की भी है और हरियाणवी गद्य साहित्य की भी। जैन धर्म प्रभावक वत्सल-निधि गुरुदेव श्री सुभद्र मुनि जी महाराज का इन कहानियों के माध्यम से रूपायित होने वाला कथाकार रूप श्रेयस्कर भी है और प्रेरक भी। इस उत्कृष्ट, अद्वितीय एवम् ऐतिहासिक महत्त्व की कृति प्रस्तुत करने के लिए उनकी सृजन क्षमता को बारम्बार वंदन । - विनया विश्वास (xut)
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy