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________________ है। राजा को न केवल उसके निर्दोष होने का विश्वास हो जाता है अपितु उस से वह इस सीमा तक प्रभावित भी हो जाता है कि उसे कुछ भी मांग लेने के लिए कहता है । तब 'कप्पिल' सोचता है कि आखिर वह क्या मांगे जो जीवन-भर उसे आनन्द देता रहे। विचार करते-करते वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि उसे राजा का समूचा राज्य ही मांग लेना चाहिए। वह राज्य मांगने वाला ही होता है कि "उसके दमाग मैं बीजली-सी चिमकी! एक नई ए बात उसके जी मैं आई-कप्पिल! तन्नै धिक्कार सै! तू इतणा गिर ग्या, जो राज्जा तन्नें इनाम देणा चावै सै तू उस्सै नैं बरबाद करण की सोच्चण लाग रया सै! धिक्कार सै मन्नै अर धिक्कार सै मेरे जी की तिरिस्ना नैं!" यहां ध्यान देने योग्य विशेषता इस कहानी-कला की यह है कि 'कप्पिल' के मन में जो भाव आ-जा रहे हैं, उनका गतिशील चित्र उभरकर सामने आ जाता है। इस प्रकार आत्मालोचना जैसी अदृश्य प्रक्रिया को भी दृश्य रूप मिलता है। हरियाणवी भाषी लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि मन में घटित होने वाली प्रक्रियाओं को ठीक-ठीक शब्द देना कितना कठिन कार्य है! इन कहानियों में अनेक स्थलों पर यह कठिन कार्य आसानी से सम्पन्न होता है जो गुरुदेव-श्री की ऊर्जस्वी लेखन-क्षमता का सूचक है। इसी प्रकार 'द्यालु राज्जा' शीर्षक कहानी में राजा का अंतर्द्वद्व देखने लायक है जो बहुत कम शब्दों में साकार हो उठा है- "राज्जा नैं सोच्ची- मैं तै बड्डे धरम-संकट मैं फँस ग्या । कबूत्तर नैं ना बचाऊं तै यो बिचारा जान तै ज्यागा । कबूत्तर नैं ना छोड्डू तै बाज भूक्खा मर ज्यागा । माड़ी वार वे सोच-बिचार करदे रहे । फेर वे भित्तर-ए-भित्तर हाँस्से ।" यहाँ इतने कम शब्दों में राजा के मन में चलने वाली दुविधा को आकार दे दिया गया है कि बिहारी की काव्य-कला याद आती है । राजा जब "भित्तर-ऐ भित्तर हाँस्से" तो स्पष्ट हो गया कि दुविधा समाप्त हो चुकी है और वे एक निश्चित कर्तव्य का पालन करने के लिए कटिबद्ध हो चुके हैं। अवसर राजा के जीवन की कठिन से कठिन परीक्षा का है परन्त राजा को वह एक खेल जैसा प्रतीत हो रहा है। इसीलिए ऐसी कठिन परिस्थिति में भी वे भीतर ही भीतर हँस सकते हैं। यह हँसी धर्म के आधार पर कठिनाई का उपहास करने वाली हँसी है। परिस्थितियों को स्वयं पर हावी न होने देने की दृढ़ता से पैदा होने वाली हँसी है यह । कहानी का यह छोटा-सा वाक्य अर्थ की अनेक परतें अपने में समेटे हुए है। एक ओर यह राजा के जीवट को तो दूसरी ओर परीक्षा के बौनेपन को उभारता है। दोनों के बीच का तनाव इस अकेले वाक्य से उद्घाटित हो जाता है। उल्लेखनीय है कि ऐसे वाक्य उस हरियाणवी में लिखे गए हैं, जिसमें लिखित कहानियों व गद्य के अन्य रूपों की कोई परम्परा नहीं है। स्पष्ट है कि ऐसे व्यंजक वाक्य कहानियों के गठन तथा विन्यास में अपनी अर्थ-समृद्ध भूमिका तो निभाते ही हैं, हरियाणवी के आगामी साहित्य को अत्यंत ऊर्जस्वी परम्परा की विरासत भी सौंपते हैं । सुगठित कथा-विन्यास इस विरासत की विशेषता है। सभी कहानियां मनुष्य-मात्र के लिए (xi)
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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