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________________ पर लिखने में हाथी ही स्थापित है । इसी तरह चलते-चलते और गलती को चलते-चलते और गल्ती बोलते हैं । हरियाणवी बोली अधिक जाती है, उसका गद्य साहित्य बहुत कम है । इसीलिए मैंने कुछ शब्दों के बोली गत उच्चारणों को हटा कर उनका भाषायी रूप स्थिर करने का प्रयास किया है। यही प्रक्रिया मैंने उन शब्दों में भी अपनाई है, जिनके दो रूप प्रचलित हैं । ब्रज भाषा के बोलने वाले 'तोइ' बोलते हैं, पर लिखित साहित्यिक भाषा में 'तोहि' लिखा जाता है, इसी तरह बोला हात जाता है, पर लिखा हाथ जाता है । यह सब ऊपर बताया जा चुका है । इसी सिद्धान्त को दृष्टि में रखकर मैंने आंख्य को आंख, द्यन को दन, शांति, स्यांति को सांति, टेम को टैम और बी को भी, च्यार को चार, उन्नै को उसने के रूप में अपनाया है । स्यांति में मैंने सांति को ही लिया है। ब्रजी, अवधी में भी श का बहिष्कार हैं उसके स्थान पर 'स' का प्रयोग है । हरियाणवी में भी श का प्रयोग मैंने मानक न समझकर शुभ को सुभ ही लिखा है । दो रूपों में मैंने जो एक रूप अपनाया है, उसका कारण यह भी है कि एक तो दूसरे प्रदेशों के लोगों को हरियाणवी समझने में अधिक सुविधा होगी और जो लिख-पढ़कर हरियाणवी के निकट आना चाहते हैं, उनको यह एक रूपता समझने में सुगमता देगी। टेम-टैम में देखें तो शुद्धत्व की दृष्टि से भी टैम को वरीयता दी जाएगी, क्योंकि मूल शब्द टाइम से टैम बनेगा, टेम नहींः आइ =ऐ । ब्रजी में भी टैम ही बोला जाता है- का टैम है गयौ ? इसी तरह मैंने कूकूकर, क्यूकर में क्यूकर रूप को ही अपनाया है, क्योंकि यह उच्चारण और भाषा दोनों की शुद्धता का द्योतक है। इस तरह दो तरह से उच्चारित शब्दों की समस्या को हल किया गया। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, हरियाणवी मेरी मातृभाषा अवश्य है, पर हरियाणवी के लेखक के रूप में मेरा यह पहला प्रयास है । यह प्रयास सफलता के कितने निकट है और इसे कितनी दूरी तय करनी है, इसका निर्धारण तो भाषाविद् और भाषाशास्त्री ही करेंगे। यह स्वाभाविक है कि मुझे उनके / आपके निर्णय/ निर्धारण की प्रतीक्षा रहेगी। इसके साथ ही एक बात और कह दूँ कि मेरे दादा गुरु पूज्य श्री मुनि मायारामजी महाराज ने हरियाणवी भाषा में जैन गीत रचे थे । मेरा यह सोचना अन्यथा न होगा- श्रद्धेय गुरुवर्य ने हरियाणवी भाषा में जैन साहित्य रचने का सर्वप्रथम जो उपक्रम किया था, जिन बीजों का वपन जो उन्होंने किया था यह प्रयास उन बीजों का ही पल्लवन है । (vii)
SR No.009997
Book TitleHaryanvi Jain Kathayen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1996
Total Pages144
LanguageHariyanvi
ClassificationBook_Other
File Size19 MB
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