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________________ आस्था की ओर बढ़ते कदम ही राग और द्वेष को एक ही श्रेणि में लाता है । इस सिद्धांत पर दृढ़ रहता कोई व्यक्ति दया, दान परोपकार आदि पुण्य कार्य कर सकेगा या नहीं यह प्रश्न स्वभाविक है । उत्तर होगा कि यद्यपि निश्चय चारित्र के अर्न्तगत आत्मा की जो आलौकिक अवस्था होती है उसमें पुण्य कार्यों का, पाप कार्यों की भांति, विकल्प ही नहीं उठता तथापि व्यवहार के अर्न्तगत पाप से निवृति और पुण्य में प्रवृति का ही विधान है। पाप अर्थात् हिंसा आदि अशुभ से निवृति और पुण्य अर्थात् दया आदि शुभ में प्रवृति, ये दोनों ही ऐसे साधन है जिनका साध्य है शुद्ध अर्थात् धर्म इसका तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहार चारित्र यदि साधन हैं तो निश्चय चारित्र उसका साध्य है। सम्यक् चारित्र के निश्चय और व्यवहार के रूप में दो भेद किये जाने से यह प्रतिफल होता है कि सभी प्रकार की चारित्रिक क्रियाओं के दो दो रूप होते हैं । सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाली किसी भी क्रिया के दृश्य रूप को व्यवहार चारित्र और उस क्रिया से होने वाली आत्मानुभूति को निश्चय चारित्र कहा जा सकता है इससे स्पष्ट है कि चारित्र के व्यवहारिक पक्ष अर्थात् दया, दान, परोपकार आदि विकल्प तभी होता है जब तक आत्मानुभूति रूप निश्चय चारित्र अपनी पूर्णता प्राप्त नहीं कर लेता । चारित्र शब्द, विशेषतया जैनाचार में इतना व्यापक है कि इसका प्रयोग विभिन्न अवसरों पर और विभिन्न उपेक्षाओं से किया गया है । उत्तम क्षमा, मृदुता तरलता, अलोभ, सत्य, अलोम, संयम, तप, त्याग, आकिंचण्य, और ब्रह्मचर्य, नामक दस मों को चारित्र कहा जा सकता है, तथापि सामायिक आदि के रूप में पांच प्रकार के चारित्र के भी विधान है क्योंकि वह मोक्ष प्राप्ति में साक्षात् कारण है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में प्रवृत्ति सम्यक्चारित्र है । इसके दो 11 132
SR No.009994
Book TitleAstha ki aur Badhte Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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