SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - आस्था की ओर बढ़ते कदम अनन्त काल तक जन्म-जन्मांतर में भटकता रहेगा, जबकि एक सम्यक्ज्ञानी यथाशीघ्र मुक्त होगा क्योंकि वह निरन्तर अनुभव करता है कि उसे जो भी उचित-अनुचित करना पड़ सकता है वह उसके पूर्वोपार्जित कमों का प्रतिफल है अन्यथा वह इस सबसे स्वभावतः अतीत ही है। यही कारण है कि विषम परिस्थितियों में एक मिथ्याज्ञानी वेदना, क्रोध आदि की अनुभूति करता है जवकि सम्यक्दृष्टि तटस्थ और निर्विकार बना रहता है। ज्ञान महाफल का यही तो है कि विषम परिस्थियों में भी या प्राणी ऐसी चेष्टाएं और विचार न करें जिनसे न कर्म बंधे और उसे अनन्त जन्मों में भटकना पड़े। सम्यकुचारित्र : स्वरूप के श्रद्धान से बाह्य वस्तुओं से मोह टूटता है, स्वरूप के ज्ञान से वाह्य वस्तुओं की अनावश्यकता निशिचत होती है, और इसीलिए पर रूप के प्रति स्वरूप का रागद्वेष छूटता है। रागद्वेष का यह छूटना ही सम्यक्चारित्र है राग और द्वेष दोनों ही शब्द सापेक्ष शब्द है क्योंकि संसार की सभी वस्तुओं से राग ही राग संभव नहीं और द्वेष ही द्वेष भी संभव नहीं। कहा जा सकता है कि जिन वस्तुओं से द्वेष न होकर मध्यस्थता हो सकती है, अतः राग को द्वेष की भांति त्याज्य नहीं ठहराया जाना चाहिए। उत्तर होगा कि द्वेष की भांति राग भी एक विकार या वैभाविक परिणति हैं क्योंकि उसके कारण भी दृष्टि स्वरूप से हटकर पर रूप पर जा टिकती है। राग और द्वेष ही समान रूप से, स्वरूप में पर रूप के कर्तृत्व का या पर रूप में स्वरूप के कर्तृव्य का आरोप करते हैं। आत्मा केवल ज्ञाता और दृष्टा ही है, और यदि कर्ता है भी व सर्वथा अपना ही पर का कदापि नहीं। यह सिद्धांत 10
SR No.009994
Book TitleAstha ki aur Badhte Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy