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________________ जिनवाणी ही वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति, समुन्नति होती है, उसका विकास किया जा सकता है। जिनवाणी का स्वाध्याय करने पर इस शरीर के भीतर छुपा हुआ जो परमात्म तत्त्व है, उसका बोध प्राप्त हो जाता है। स्वभाव का बोध न होने के फलस्वरूप ही संसारी प्राणी पर-पदार्थों की शरण पाने के लिये लालायित हो रहा है। बाहर पर-पदार्थों में उपयोग भटकाते-भटकाते अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है। जब इस जीव को अपने स्वभाव का बोध होगा, तब वह बहिर्मुखी न होकर, अन्तर्मुखी होना प्रारम्भ कर देगा। मेरा शास्त्र के अभ्यास में जो दिन जाता है, वह धन्य है। परमागम के अभ्यास बिना हमारा जो समय जाता है, वह वृथा है। स्वाध्याय बिना शुभ ध्यान नहीं होता है। शास्त्र के अभ्यास बिना पाप से नहीं छूटता है, कषायों की मंदता नहीं होती है। शास्त्र के सेवन बिना संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है। समस्त व्यवहार की उज्ज्वलता व परमार्थ का विचार आगम के सेवन से ही होता है। श्रृत के सेवन से जगत में मान्यता, उच्चता, उज्ज्वल यश, आदर-सत्कार प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान ही परम बांधव है, उत्कृष्ट धन है, परममित्र है। स्वदेश में, परदेश में, सुख अवस्था में, दुःख अवस्था में, आपदा में, सम्पदा में परम शरणभूत सम्यग्ज्ञान ही है। स्वाधीन अविनाशी धन ज्ञान ही है। _इसलिये शास्त्रों के अर्थ का ही सेवन करो। अपनी संतान को तथा शिष्यों को ज्ञानदान ही करो। ज्ञानदान देने के समान करोड़ धन का दान भी नहीं है। धन तो मद उत्पन्न करता है, विषयों में उलझाता है, दुर्ध्यान कराता है, संसाररूप अंधकूप में डुबोता है, अतः ज्ञानदान समान अन्य दान नहीं है। सभी को आगमग्रंथों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। प्रवचन भगति करै जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानन्द-दाता। 10 7640
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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