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________________ विकार व्यक्त होते हैं, जिन विकारों में तू झुंझला जाता है, संतप्त हो जाता है, जानता है न कि ये व्यक्त विकार बनते किस तरह हैं? जगत के इन दृश्यमान पदार्थों में उपयोग जोड़ते हैं, तो ये विकार प्रकट होते हैं। तो तू इनमें उपयोग मत लगा। यही तो चरणानुयोग की शिक्षा है कि तू उपचरित निमित्त में अपना उपयोग मत जोड़। उपयोग न जुड़े इन बहिरंग कारणों में, इसके लिए त्याग की विधि बतायी गई है। यद्यपि किसी बाह्य वस्तु का त्याग करने पर भी किसी के उसका विकल्प रह सकता है। मगर गधा को मिश्री मीठी नहीं लगती, तो इसके मायने यह तो नहीं कि मिश्री मीठी ही नहीं होती। यदि किसी अज्ञानी को त्याग की बात नहीं जंचती है, तो उसका अर्थ यह न होगा कि त्याग निष्फल होता है। संयम की साधना-आराधना की तीर्थंकरों ने, इन बाह्य वस्तुओं का त्याग किया, तो विधि तो यही है कि बाहरी आश्रयभूत पदार्थों का त्याग करें, तो उसमें कुछ-न-कुछ लाभ है ही। सम्यग्ज्ञान सहित त्याग है, तो मोक्षमार्ग का लाभ है। सम्यक्त्वरहित त्याग है तो भी सदगति का तो लाभ है। तो चरणानुयोग यहाँ सिखाता है कि तुम्हारा व्यक्त विकार इन बाहरी पदार्थों के आश्रय से होता है, इसमें उपयोग जोड़ने से होता है, तो तुम इनमें उपयोग मत जोड़ो और ये पर-पदार्थ सामने रहे आयें और उपयोग न जोड़ें, यह कठिनाई लगती है न, तो हम उनका त्याग करें। द्रव्यानुयोग की उपयोगिता का दिग्दर्शन- द्रव्यानुयोग के दो विषय हैं- अध्यात्म और न्याय । न्याय भी द्रव्यानुयोग की बात कहता है। न्याय से श्रद्धा पुष्ट होती है। जहाँ युक्तियों से वस्तु का स्वरूप समझा, वहाँ उसकी समझ बड़ी दृढ़ हो जाती है। केवल आगम के आधार से वस्तु स्वरूप को माना जाय तो वहाँ पुष्टता नहीं जचती । यद्यपि आगम में शंका न करनी चाहिए, पर यों ही ऊपरी वचनमात्र श्रद्धा भी न करनी चाहिए। यह बात उसके बनती कि जिसने प्रयोजनभूत तत्त्वों को अनुभव से परख 0759_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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