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________________ लोक के आगे समुद्र के सामने बिन्दु के बराबर है। इतने सारे लोक में हम कहाँ–कहाँ नहीं पैदा हुए और कहाँ-कहाँ नहीं पैदा हो सकते हैं? एक इस थोड़े से क्षेत्र का ही मोह करने से इस जीव को क्या मिलता है? जिस जगह पैदा हुए (कुछ थोड़े-सी जगह जिसके अंदर पैदा हुए) कुछ धन-सम्पदा मिली तो उससे क्या पूरा पड़ता है? यह तो एक पूर्व - पुण्य की परिस्थिति है जो प्राप्त हुई है। इसका कोई भरोसा है क्या, कि यह सदा साथ रहेगी? लोक का ज्ञान करने से वैराग्य में, ज्ञान में बहुत वृद्धि होती है। अनादि-अनन्त, यानी बड़ा भी न कहो । बड़े की भी कुछ सीमा होती है कि इतना बड़ा। मगर यह तो अनन्त है । अनन्त को हम बड़ा नहीं कह सकते। जिसकी सीमा नहीं, जिसका अन्त नहीं, वह तो अनंत है, तो अनादिकाल से कितना समय हमने गुजार डाला और आगे हमारा कितना समय गुजरेगा? इन सारे समयों के बीच अगर 70-80 वर्ष की यह आयु पायी है, तो यह तो समुद्र के सामने एक बूँद के बराबर भी नहीं बैठती । इतने से समय के लिए नाना विकल्प, कषायें मचाकर अपने आज के भव को बरबाद कर देना, निष्फल गँवा देना, यह तो उचित नहीं है । काल का जब परिचय होता है, तो इस जीव को बहुत शिक्षा प्राप्त होती है। जीवों की दशाओं का परिचय देखो। जीवस्थान, मार्गणा आदिक विधियों के अनुसार एक में दूसरे को घटाकर इस जीव की दशाओं का परिचय पाते हैं। कैसी-कैसी जीव की दशायें हैं? आज हम मनुष्य हैं, कभी पेड़-पौधे होते, कीड़े-मकोड़े होते, तो आज ये कष्ट काहे को भोगने पड़ते? वहाँ तो उन तुच्छ-भवों-जैसे कष्ट भोगे जा रहे होते। तो जीव की दशाओं का परिचय होने से ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि होती है। चरणानुयोग की उपयोगिता का दिग्दर्शन- अच्छा, चरणानुयोग की बात देखो, वह सबक सिखा रहा है कि, हे भव्य प्राणी! जो तेरे में LU 758 S
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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