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________________ शरीर को अपना मानकर व्यर्थ ही संसार में परिभ्रमण करता रहा। अपनी भूल का पता चल जाने से उसका जीवन परिवर्तित हो जाता है। सारे दुःखों का मूलकारण है शरीर में अपनापन। जितना शरीर को अपने रूप देखोगे, उतना-उतना राग-द्वेष-मोह बढ़ेगा और जितना हम शरीर को स्वयं से अलग देखेंगे, तो मोह पिघलने लगेगा। परमार्थ से आत्मशान्ति का उपाय यही है कि सम्यकचारित्र धारण कर पर-संबंध को छोड़ा जाये और आत्मपरिणति का विचार किया जाय। आत्मा अपने ही अपराध से संसारी बना है और अपने ही प्रयत्न से मुक्त हो जाता है। जब यह आत्मा मोही, रागी, द्वेषी होता है, तब स्वयं संसारी हो जाता है तथा जब राग, द्वेष, मोह को छोड़ देता है, तब स्वयं मुक्त हो जाता है। अतः जिन्हें संसारबंधन से छूटना है, उन्हें उचित है कि निज को निज व पर को पर जानकर फिर पर को छोड़कर निज में लीन रहें। सच्चा ज्ञान होने पर इस जीव को मोक्ष के निराकुल सुख का ज्ञान व श्रद्धान हो जाता है, राग-द्वेष-मोह मिटता है, समता भाव जागृत होता है, आत्मा में रमण करने का उत्साह बढ़ता है, कर्म का मैल कटता है और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है। ___ भगवान् महावीर स्वामी के मुक्त हो जाने के पश्चात आत्मकल्याण का पथप्रदर्शन गुरु ही कर रहे हैं। यह गुरुओं का ही उपकार है जो आज हमें जिनवाणी पढ़ने व सुनने को मिल रही है। जैसे एक दीपक से अनेक दीपक जलाये जा सकते हैं, उसी प्रकार एक गुरु से शिष्य से परशिष्य आदि से गुरुपरम्परा अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। गुरु का स्वरूप बताते हुये कहा है रत्नत्रय विशुद्धः सत्, पात्रस्नेही पदार्थकृत् । परिपालित, धर्मोही, भावाब्धेस्तारको गुरुः ।। जो रत्नत्रय से विशुद्ध हो, धार्मिकजनों से स्नेह करता हो, परोपकार में रत हो, स्वयं धर्म का आचरण करता हो, ऐसा मनुष्य ही भवसागर से 0_748 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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