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________________ जिसमें इतनी प्रवीणता हो कि यह जान सके कि प्रायश्चित लेनेवाले को कितना प्रायश्चित देने पर उसके परिणाम उज्ज्वल हो जायेंगे, दोष का अभाव हो जायेगा, व्रतों में दृढ़ता होगी, ऐसा ज्ञाता हो। जिसे आहार की योग्यता-अयोग्यता का ज्ञान हो, इस क्षेत्र में ऐसे प्रायश्चित का निर्वाह होगा या नहीं होगा, इस क्षेत्र में वात-पित्त-कफ-शीत-उष्णता की अधिकता है या कमपना है, अथवा इस क्षेत्र में मिथ्यादृष्टियों की अधिकता है या मंदता है, धर्मात्माओं की अधिकता है या मंदता है, यह जानकर प्रायश्चित का निर्वाह होता दिखाई दे, तो प्रायश्चित देना चाहिये। ___ शीत-उष्ण-वर्षाकाल को, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का चौथा, पंचम काल को देखकर, काल के आधीन प्रायश्चित का निर्वाह होता दिखाई दे तो प्रायश्चित दें। परिणाम देखना चाहिये, यह भी देखना कि तपश्चरण में इसका तीव्र उत्साह है या मंद है। संहनन की हीनता-अधिकता, बल की मंदता-तीव्रता भी देर यह भी देखना चाहिये कि यह बहुत काल का दीक्षित है या नवीन दीक्षित है, सहनशील है या कायर है, बाल-युवा-वृद्ध अवस्था भी देखना चाहिये; आगम का ज्ञाता है या मंद ज्ञानी, पुरुषार्थी है या मंद उद्यमी है- इत्यादि का ज्ञाता होकर प्रायश्चित देना चाहिए। दोषरूप आचरण जिस प्रकार फिर नहीं करे तथा पूर्व में किये दोष दूर हो जायें, उस प्रकार शास्त्र के अनुकूल प्रायश्चित देना चाहिए। प्रकर्ता : आचार्य को प्रकर्त्ता गुण सहित होना चाहिये। संघ में कोई रोगी हो, वृद्ध हो, अशक्त हो, बालक हो जिसने सन्यास धारण कर लिया हो, उनकी वैयावृत्य में नियुक्त किये गये मुनि तो सेवा करते ही हैं, परन्तु स्वयं आचार्य भी यदि संघ में मुनियों में कोई अशक्त हो जाये तो उसे उठाना, बैठाना, शयन कराना, मल-मूत्र-कफ तथा खून-पीव आदि शरीर से दूर करना, इत्यादि आदरपूर्वक भक्तिसहित वैयावृत्य करें। उनको 07380
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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