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________________ यह मनुष्य आहारमय है, आहार से ही जी रहा है, आहार की ही निरंतर वांछा करता है। जब रोग के कारण या त्याग कर देने से आहार छूट जाता है तथा दुःख से ज्ञान–चारित्र में शिथिल हो जाता है, धर्म्यध्यान रहित हो जाता है, तब बहुश्रुत गुरु ऐसा उपदेश देते हैं, जिससे क्षुधा-तृषा की वेदना रहित होकर उपदेशरूप अमृत से सींचा हुआ समस्त क्लेशरहित हुआ धHध्यान में लीन हो जाता है। क्षुधा, तृषा, रोगादि की वेदना सहित शिष्य को धर्म के उपदेशरूप अमृत का पानी तथा उत्तम शिक्षा रूप भोजन द्वारा ज्ञानसहित गुरु ही वेदनारहित करते हैं। बहुश्रुती के आधार बिना ६ गर्म नहीं रहता है। इसलिये जो आधारवान् आचार्य हो, उसी की शरण ग्रहण करना योग्य है। यदि शिष्य वेदना से दुःखी हो रहा हो, तो उसका शरीर सहलाना, हाथ पैर मस्तक दाबना, मीठे शब्द बोलना, इत्यादि द्वारा दुःख दूर करें। पूर्व में जो अनेक साधुओं ने घोर परीषह सहकर आत्मकल्याण किया, उनकी कथा कहकर देह से भिन्न आत्मा का अनुभव कराकर वेदनारहित करें। हे मुने! अब दुःख में धैर्य धारण करो। संसार में कौन-कौन से दुःख नहीं भोगे? यदि वीतरागी की शरण ग्रहण करोगे तो दुःखों का नाश करके कल्याण को प्राप्त हो जाओगे- इत्यादि बहुत प्रकार से कहकर मार्ग से विचलित नहीं होने दे, ऐसा आधारवान गुरु ही शरण लेने योग्य है। व्यवहारवान् : आचार्य को व्यवहार प्रायश्चितशास्त्र का ज्ञाता होना चाहिये, क्योंकि प्रायश्चितशास्त्र तो जो आचार्य होने के योग्य होता है उसी को पढ़ाया जाता। औरों के पढ़ने योग्य नहीं है। जो जिनागम का ज्ञाता हो, महाधैर्यवान् हो, प्रबलबुद्धि का धारक हो, वही प्रायश्चित दे सकता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, क्रिया, परिणाम, उत्साह, संहनन, पर्याय, दीक्षा का काल, शास्त्रज्ञान, पुरुषार्थ आदि को अच्छी तरह जानकर जो राग-द्वेष रहित होता है, वही प्रायश्चित देता है। 0_7370
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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