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________________ विरागता वाले हों। सिद्धान्त सूत्र के अर्थ के पारगामी हों। इंद्रियों का दमन करके इसलोक-परलोक संबंधी भोग-विलास रहित हों। देहादि में निर्ममत्व हों। महाधीर हो। उपसर्ग-परीषहों से जिन का चित्त कभी चलायमान नहीं हो। स्वमत-परमत के ज्ञाता हों। अनेकान्त विद्या में क्रीड़ा करनेवाले हों, अन्य के प्रश्न आदि का कायरता रहित तत्काल उत्तर देनेवाले हों, एकान्त पक्ष का खंडन कर सत्यार्थ धर्म की स्थापना करने की जिनमें सामर्थ्य हो, धर्म की प्रभावना करने में उद्यमी हों। गुरुओं के निकट प्रायश्चित आदि शास्त्र पढ़कर छत्तीस गुणों के धारक हों। उन्हें समस्त संघ की साक्षीपूर्वक गुरुओं का दिया आचार्य पद प्राप्त होता है। आचार्य के आठ गुण : आचार्य के अन्य अष्ट गुण हैं, जिनका धारण करनेवाला ही आचार्य होना चाहिए। आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, प्रकर्त्ता, अपायोपायविदर्शी, अवपीड़क, अपरिस्रावी, निर्यापक- ये आठ गुण हैं। आचारवान् : जो पाँच प्रकार का आचार धारण करता है, उसे आचारवान् कहते हैं। भगवान् सर्वज्ञ वीतराग देव ने अपने दिव्य निरावरण ज्ञान द्वारा जीवादि तत्त्वों को प्रत्यक्ष देखकर कहा है, उनमें सम्यक्श्रद्धान रूप परिणति होना वह दर्शनाचार है। स्व–पर तत्त्वों का निर्बाध आगम और आत्मानुभव से जाननेरूप प्रवृत्ति, वह ज्ञानाचार है। हिंसादि पाँच पापों के अभावरूप प्रवृत्ति, वह चारित्राचार है। अंतरंग-बहिरंग तप में प्रवृत्ति, वह तपाचार है। परीषह आदि आने पर अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर धीरतारूप प्रवृत्ति, वह वीर्याचार है। और भी दश प्रकार के स्थिति कल्प आदि आचार में तत्पर हों। ____ पाँच प्रकार का आचार आप स्वयं निर्दोष पालें तथा अन्य शिष्यों को भी निर्दोष आचरण कराने में उद्यमी हों, वही आचार्य हैं। यदि आचार्य स्वयं 10 735_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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