SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 734
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छिपाते हुए बाईस परीषहों को जीतने में समर्थ, ऐसे निरन्तर पंच आचार के धारक होते हैं। अंतरंग - बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, निर्ग्रथ मार्ग में गमन करने में तत्पर हैं, उपवास, पंचोपवास, पक्षोपवास, मासोपवास करने में तत्पर हैं, तथा निर्जन वन में, पर्वतों के दराड़े में, गुफाओं के स्थान में निश्चल शुभ ध्यान में मन को धारते हैं । शिष्यों की योग्यता को अच्छी तरह से जानकर दीक्षा देने में व शिक्षा देने में निपुण हैं, युक्ति से सब प्रकार के नयों के जाननेवाले हैं, अपने शरीर से ममत्व छोड़कर रहते हैं, सदा संसार - कूप में पतन हो जाने से भयवान् रहते हैं । जिन्होंने मन-वचन - काय की शुद्धता सहित नासिका के अग्रभाग में नेत्रयुगल को स्थापित किया है, ऐसे आचार्य को मस्तक सहित अपने सभी अंगों को पृथ्वी में नवाकर वंदन करना चाहिए। इस प्रकार संसार परिभ्रमण के क्लेश को नष्ट करनेवाली आचार्यभक्ति है जो आचार्य हैं वे समस्त धर्म के नायक हैं। आचार्यों के आधार से समस्त धर्म है। अतः उन्हें ही आचार्य बनना चाहिए जो उच्च कुल में उत्पन्न हुए हों। जिनके स्वरूप को देखते ही परिणाम शांत हो जायें, ऐसे मनोहर रूप वाले हों; जिनका उच्च आचार जगत में प्रसिद्ध हो; पहले गृहस्थ अवस्था में भी कभी हीन आचार निंद्य व्यवहार नहीं किया हो; वर्तमान भोग सम्पदा छोड़कर विरक्तता को प्राप्त हुए हों। लौकिक व्यवहार तथा परमार्थ के ज्ञाता हों । बुद्धि की प्रबलता तथा तप की प्रबलता के धारक हों । संघ के अन्य मुनियों से जैसा तप नहीं बन सके वैसे तप के धारक हों। बहुत काल के दीक्षित हों। बहुत काल तक गुरुओं का चरणसेवन किया हो। वचन में अतिशय सहित हों । जिनके वचन सुनते ही धर्म में दृढ़ता हो । संशय का अभाव हो । जो संसार - शरीर - भोगों से दृढ़- - निश्चल 734 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy