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________________ क्रिया के व शुभ परिणामों के बल पर ही अनादि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व का खण्डन करने में समर्थ होता है। सम्यक्त्व के सन्मुख होनेवाला जीव करणलब्धि की प्राप्ति रूप योग्यता को उससे पूर्व होने वाली प्रायोग्यलब्धि में ही करता है, जहाँ प्रतिसमय असंख्यात गुणी अशुभ कर्मों की हानि व शुभ कर्मों की वृद्धि के बल पर ही कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को नाश कर अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति में करता है। जब तक जीव को प्रयोग्य लब्धि की प्राप्ति व उसके द्वारा होनेवाली उत्कृष्ट कर्मस्थिति का छेदन नहीं होता, तब तक यह जीव करणलब्धि की योग्यता को प्राप्त नहीं कर सकता, जो सम्यक्त्व संसार की अनन्त स्थिति को काटकर अधिकाधिक अर्द्ध–पुद्गल - परावर्तन काल को प्राप्त करता है, यानि सम्यग्दृष्टि जीव का संसारकाल अधिकाधिक अर्द्ध पुद्गल परावर्तन मात्र शेष रह जाता है। सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतादि रूप परिणाम तथा कषाय निग्रह रूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्यजीव है, इसीलिए पुण्य की परिभाषा करते हुये आचार्य पूज्यपाद स्वामी 'सर्वार्थसिद्धि' में लिखते हैं “पुनात्यात्मानं पूयते - पवित्री क्रियते नेनेति वा पुण्यम्" जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है, उसे पुण्य कहते हैं । पुण्यात्मा का हर जगह आदर-सत्कार होता है। जब तक उसका पुण्य है। तब तक उस पूर्व पुण्य के आधार पर गलत कार्य करते हुये भी उसे सम्मान प्राप्त होता है । एक नगर में पूर्व पुण्य की पूँजी से युक्त एक सेठ निवास करता था । सेठ के पास अपार धन-संपत्ति थी, परन्तु पुत्ररत्न की कमी थी । समय अपनी गति से गुजरता गया । चिर प्रतीक्षा के पश्चात् सेठ जी के पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का जन्मोत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया गया । सुख की घड़ियाँ कैसे व्यतीत हो जाती हैं, पता नहीं चलता। बालक ने बाल्यावस्था 7292
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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