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________________ आत्मा ही उपास्य है, आराधना के योग्य है, क्योंकि जो परमात्मा है, वह मैं यः परमात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।।31 ।। इस उच्च अध्यात्म चिंतन की देशना करनेवाले महर्षि वृद्धावस्था में अपनी आराधना के फलस्वरूप भगवान् से यह प्रार्थना करते हैं- जिनेश्वर! आपकी बाल्यकाल से अब तक की गई आराधना का मुझे यही प्रसाद चाहिए कि परलोक प्रयाण काल में मेरा कण्ठ स्पष्ट रूप से आपका पावन नाम स्मरण करने की शक्ति से समन्वित रहा आवे। महान् महिमाशाली समंतभद्र स्वामी, जिनकी भक्ति की श्रेष्ठता के कारण पाषाण पिण्ड के भीतर से भगवान् चंद्रप्रभु तीर्थंकर की दिव्य प्रतिमा प्रादुर्भूत हुई थी, ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में कहा है- ‘पंच नमस्कार मनास्तनुंत्यजेत् सर्व-यत्नेन' । (128)पूर्ण सावधानीपूर्वक पंचनमस्कार मंत्र में चित्त को लगाकर अपने शरीर का परित्याग करें। यह सच्ची जिनेन्द्र भक्ति सम्यक्त्व रूप है। यह भक्तिरूप सम्यग्दर्शन की ज्योति जिस आत्मा को प्रकाशित करती है, उसका अद्भुत, विकास और उन्नति हुआ करती है। जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने से सातिशय पुण्य की प्राप्ति होती है। संसार के रंगमंच पर प्रत्येक प्राणी अनादिकाल से पुण्य-पापानुसार नाना प्रकार के अभिनय करता आ रहा है। "शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य" शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। पुण्य की व्याख्या करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी 'प्रवचनसार' ग्रंथ में लिखते हैं'सुह परिणामो पुण्यम्” शुभ परिणाम पुण्य है। शुभ भावों द्वारा होने वाली क्रियाओं से जो पुण्य होता है, वह जीव को आपत्तियों से बचाता है। पुण्य से ही चक्रवर्ती, नारायण, तीर्थंकर आदि पद्वियों को प्राप्त करता है। पुण्य 0 7280
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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