SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 722
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्रत-संयम आदि की शुद्धि का उपदेश देते हैं, वह शिष्य की वैयावृत्य है। शिष्य भी गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवर्तता हुआ गुरुओं के चरणों की सेवा करे, वह आचार्य की वैयावृत्य है । रोगी मुनियों के तथा गुरुओं के प्रातः एवं संध्याकाल (आथण) शयन, आसन, कमंडलु, पीच्छि, पुस्तक अच्छी तरह नेत्रों से देखकर मयूर पीच्छि से शोधना; अशक्त रोगी मुनियों का आहार - औषधि आदि द्वारा संयम के योग्य उपचार करना, शुद्ध ग्रन्थ को बांचकर, धर्म का उपदेश देकर परिणामों को धर्म में लीन कराना, तथा बैठाना, मल-मूत्र कराना, करवट लिवाना इत्यादि सब वैयावृत्य है। कोई साधु रास्ते में दुःखी हुआ हो, भील, म्लेच्छ, दुष्ट राजा, दुष्ट तिर्यंचों द्वारा दुःखी हुआ हो, उपद्रव रूप हुआ हो, दुर्भिक्ष, मरी-व्याधी, इत्यादि उपद्रवों से पीड़ा होने से परिणाम कायर हुए हों, तो उसे स्थान देकर कुशल पूछकर आदर से सिद्धान्त की शिक्षा देकर स्थितिकरण करना, वह वैयावृत्य है। जो समर्थ होकरके भी अपने बल-वीर्य को छिपाकर वैयावृत्य नहीं करता है, वह धर्मरहित है। उसने तीर्थंकरों की आज्ञा भंग की, श्रुत द्वारा उपदेशित धर्म की विराधना की, अपना आचार बिगाड़ लिया, प्रभावना नष्ट की, धर्मात्मा का आपत्ति में भी उपकार नहीं किया, तब धर्म से विमुख हुआ, श्रुत की आज्ञा लोपने से परमागम से पराङ्मुख हुआ । वैयावृत्य से ऐसे परिणाम होते हैं कि अहो! मोह अग्नि से जलते हुए जगत में एक दिगम्बर मुनि ही ज्ञानरूप जल के द्वारा मोहरूप अग्नि को बुझाकर आत्मकल्याण करते हैं । वे धन्य हैं जो काम को मारकर, रागद्वेष को त्यागकर, इंद्रियों को जीतकर आत्मा के हित में उद्यमी हुए हैं। ये लोकोत्तर गुणों के धारी हैं। मुझे ऐसे गुणवंतों के चरणों की शरण ही प्राप्त हो। इस प्रकार के गुणों में परिणाम वैयावृत्य से ही होते हैं। जैसे-जैसे 722 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy