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________________ दीक्षा देनेवाले आचार्य के जो शिष्य हैं, वे 'कुल' हैं। ऋषि, यति, मुनि, अनगार इन चार प्रकार के मुनियों का जो समूह है, वह 'संघ' है। बहुत समय से जो दीक्षित हों, वे 'साधु' हैं। जो पण्डितपने द्वारा, ऊँचे कुल द्वारा (प्रसिद्ध गुरु का शिष्य होना) लोगों में मान्य होकर धर्म का, गुरुकुल का गौरवपना उत्पन्न करनेवाले हों- बढ़ानेवाले हों, वे ‘मनोज्ञ' हैं। इन दश प्रकार के मुनियों को रोग आ जाय, परीषहों से दुःखी होकर तथा श्रद्धानादि बिगड़ जाने से मिथ्यात्व आदि को प्राप्त हो जॉय, तो प्रासुक औषधि, भोजन-पानी, योग्य स्थान, आसन, तखत, तृणादि की बिछावन करके, पुस्तक-पीछी आदि धर्मोपकरण द्वारा प्रतिकार-उपकार करना, तथा पुनः सम्यक्त्व में स्थापित करना इत्यादि उपकार करना वह वैयावृत्य है। यदि बाह्य में भोजन-पानी-औषधि देना सम्भव नहीं हो तो अपने शरीर द्वारा ही उनका कफ, नाक का मैल, मूत्रादि दूर कर देने से तथा उनके अनुकूल आचरण करने से वैयावृत्य होती है। इस वैयावृत्य में संयम की स्थापना, ग्लानि का अभाव, प्रवचन में वात्सल्यता, सनाथपना इत्यादि अनेक गुण प्रकट होते हैं। वैयावृत्य ही परम धर्म है। वैयावृत्य नहीं हो तो मोक्षमार्ग बिगड़ जायेगा। आचार्य आदि अपने शिष्य, मुनि, रोगी इत्यादि की वैयावृत्य करने से बहुत विशुद्धता व उच्चता को प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार श्रावक भी मनियों की वैयावत्य करें, तथा श्राविकायें आर्यिकायों की वैयावृत्य करें। औषधिदान द्वारा भी वैयावृत्य करें, भक्तिपूर्वक युक्ति से देह का आधार आहारदान देकर वैयावृत्य करें। कर्म के उदय से कोई दोष लग गया हो तो उसे ढाँकना, श्रद्धान से चलायमान हो गया हो तो उसे सम्यग्दर्शन ग्रहण कराना, जिनेन्द्र के मार्ग से बिछुड़ गया हो तो उसे मार्ग में स्थापित करना इत्यादि उपकार द्वारा भी वैयावृत्य होती है। जो आचार्य आदि गुरु शिष्य को श्रुत के अंग पढ़ाते हैं तथा 0_721_0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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