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________________ इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरा अनंतानंत काल बीत गया है। समस्त समागम अनेक बार पाया, परन्तु समाधिमरण प्राप्त नहीं हुआ है। यदि समाधिमरण एक बार भी मिल गया होता, तो फिर जन्म-मरण का पात्र नहीं होता। संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने भव-भव में अनेक नये-नये देह धारण किये हैं। ऐसी कौन-सी देह है जो मैंने धारण नहीं की? अब इस वर्तमान देह में क्यों ममत्व करूँ? मुझे भव भव में अनेक स्वजन-कुटुम्बीजनों का भी संबंध हुआ है। आज पहली बार ही स्वजन नहीं मिले हैं, अतः किस-किस स्वजन में राग करूँ? मुझे भव-भव में अनेक बार राजऋद्धि प्राप्त हुई है। अब मैं इस तुच्छ वर्तमान सम्पदा में क्या ममता करूँ? भव-भव में मेरे अनेक पालन करने वाले माता-पिता भी हो गये हैं, अभी ये प्रथम बार ही नहीं हुए हैं? __ इस तीनलोक में सुख-दुःख की सभी सामग्री इस जीव ने अनन्तबार पाई है, कुछ भी दुर्लभ नहीं है! एक साधुसमाधि रूप जो रत्नत्रय की लब्धि है उसे निर्विघ्न परलोक तक ले जाना दुर्लभ है। जो रत्नत्रय सहित होकर देह को छोड़ता है, उसके जो साधुसमाधि होती है, उसकी प्राप्ति दुर्लभ है। साधुसमाधि चतुर्गति में परिभ्रमण के दुःख का अभाव करके निश्चल, स्वाधीन, अनन्तसुख को प्राप्त कराती है। जो पुरुष साधुसमाधि भावना को निर्विघ्न रूप से प्राप्त करने के लिये इस भावना को भाता है, वह शीघ्र ही संसारसमुद्र को पार करके अष्टगुणों का धारक सिद्ध बन जाता है। जो जीव जीवनपर्यन्त व्रत-संयम का पालन करते हैं, उनके भाव अन्त समय में समाधिमरण धारण करने के होते हैं। जो अपने जीवन में संयम धारण कर लेता है, मन को सदा शुभ कार्यों में लगाये रखता है, उससे कभी गलत कार्य नहीं हो सकता। एक व्यक्ति सरकस में काम करता था। काम क्या करता था, खेल 07120
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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