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________________ सम्पदा नहीं है। जिसे अपनी निजी सम्पदा का बोध हो जाता है, उसका बाह्य-सम्पदा के प्रति ममत्व अपने-आप घट जाता है। उसे यह बाह्य सम्पदा, जिसे वह अज्ञान दशा में सुख का कारण मान रहा था, अब दुःख का कारण मालूम पड़ने लगती है, और तब उस बाह्य सम्पदा का त्याग सहजरूप से हो जाता है, तथा त्याग करते समय उसे न त्याग का अहंकार होता है और न ही त्याग का संक्लेश। त्याग के बिना न तो आज तक किसी का उद्धार हुआ है और न आगे होगा। चाहे कोई कभी भी त्याग के मार्ग पर बढ़े, पर कल्याण होगा त्याग से ही। यह प्राणी जब तक त्याग नहीं करता, तब तक विपत्तियों में ही तो रहेगा। जैसे किसी पक्षी को कोई भोजन मिल जाये, कोई टुकड़ा मिल जाये, तो उस पर अनेक पक्षी टूट पड़ते हैं। वह पक्षी परेशान हो जाता है। यदि वह पक्षी टकडे को छोड दे तो एक भी पक्षी उसे परेशान न करे। इसी प्रकार यह मोही प्राणी अपने परिणामों में बाह्य वस्तुओं को पकड़े हुए हैं और आकुल-व्याकुल बने हैं। मिथ्यात्व मोह में तो व्यर्थ ही अनेकों की गुलामी करनी पड़ती है। यदि हम इन बाह्य पदार्थों का त्याग करके आत्मसाधना करें, तो सदा के लिये सुखी बन जायें। कहा भी है त्याग बराबर तप नहीं, जो होवे निरदोष। भविजन कीजे त्याग अब, मिले बड़ा संतोष।। त्याग का अर्थ होता है वस्तु के त्याग के साथ उसके प्रति ममत्व भाव का भी त्याग करना। त्याग करने के बाद त्यागी हुई वस्तु का ध्यान नहीं आना चाहिए। त्याग दिया तो त्याग दिया, अब उससे लगाव/जुड़ाव नहीं रहना चाहिये । व्यक्ति किसी पदार्थ से दो प्रकार से जुड़ता है, एक तो उसमें आसक्त होकर और दूसरा उन पदार्थों को छोड़ दिया फिर भी मैंने छोड़ा है, इस बात का अभिमान करके। एक तो पकड़कर जुड़ा है और एक छोड़कर जुड़ा है। तो इस जुड़ने-को-छोड़ने का नाम त्याग है। cu 696
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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