SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 694
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से होना चाहिये, जैसे अपने घर को साफ-सुथरा रखने के लिये हम कूड़ा-कचरा घर से बाहर सहज भाव से फेक देते हैं। कूड़ा-कचरा घर से बाहर फेकते समय हमारे मन में संक्लेश नहीं होता और न ही अहंकार का भाव होता है कि मैंने इतना ढेर-सारा कचरा त्याग दिया। मन में भाव आता भी है तो इतना ही कि कचरा फेकना जरूरी था, सो मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। ऐसे ही अपने जीवन को अच्छा और सुन्दर बनाने के लिये सहज भाव से विकारों का, धन-सम्पदा का त्याग करना चाहिए। अहंकार और संक्लेश से रहित होकर अपना कर्तव्य मानकर त्याग करना चाहिये। वैराग्य भावना में आता है छोड़े चौदह रतन, नवो निधि, अरु छोड़े संग साथी। कोटि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी।। इत्यादि सम्पति बहु तेरी, जीरण तृण-सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को, राज दियो बड़भागी।। संसार शरीर और भोगों की वास्तविकता जानकर अत्यन्त वैराग्य भाव से भरत चक्रवर्ती ने अपार सम्पदा का, जीर्ण तृण के समान, त्याग कर दिया। सूखी घास का तिनका भी उपयोगी जान पड़ता है, इसलिये उसके प्रति भी ममत्व रह सकता है, परन्तु जीर्ण-शीर्ण तिनके के प्रति ममत्व भाव सहज ही छूट जाता है। इसलिये त्यागी हुई वस्तु को जीर्ण-तृण के समान समझकर छोड़ना चाहिये। जिसे अपनी निजी सम्पदा का बोध हो जाता है, उससे बाह्य सम्पदा का त्याग सहज रूप से हो जाता है। एक बार पड़ोसी राज्यों में परस्पर युद्ध हुआ। जो राजा जीत गया, उसने दूसरे के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और घोषणा करा दी कि आज से यह राज्य हमारा है, इस राज्य में पहले से रहने वाले लोग इसे खाली कर दें और अपनी जितनी सम्पत्ति सिर पर रखकर ले जायी जा सके, उतनी ले जायें। उस राज्य के लोग 694
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy