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________________ इस संवेग भावना के फल में अपने आपके शुद्ध आनन्द का बार-बार अनुभव होता है । और जब- जब साधर्मीजन होते हैं तो उनको देखकर प्रमोदभाव होता है। धन्य है साधर्मीजन मिलने की घड़ी। वे उस क्षण को धन्य मानते हैं जिस क्षण रत्नत्रय के धारी मोक्षमार्ग के रुचिया जन मिलते हैं। जरा ही तो अपने उन्मुख होना है, कि सारे संकट इसके टल जाते हैं । केवल एक मुख के मोड़ में ही संसार और मुक्ति का अन्तर है । जहाँ इस समय पीठ है, वहाँ मुख करना है और जिन परपदार्थों की ओर मुख किए हैं, वहाँ पीठ करना है। इतना ही करने के पश्चात् कल्याण के लिए जो संवेग भावना हो जाती है उस भावना का आदर करें। अपने चित्त से यह श्रद्धा हटावो कि धन वैभव ही मेरे सबकुछ हैं । अरे! वे तो धूल की तरह हैं। क्या तत्त्व उन में रखा है? सब भिन्न हैं, पुद्गल हैं, अहितरूप हैं, जिनका विषय करने से तृष्णा का रोग उत्पन्न होता है । यों भोगों से विरक्त होकर, निजस्वरूप में अनुरक्त होकर संवेगभावना को धारण करें जिससे निकट काल में ही इस संसार के सारे संकटों से मुक्ति मिल सकेगी। जो संवेग-भाव विस्तारै, सुरग - मुकति-पद आप निहारै । 6852
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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