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________________ जिसने ज्ञानाभ्यास नहीं किया, पर्याय को ही निजस्वरूप माना, ऐसा पुरुष कोई भेष रखकर भी, वह घोर तप करके भी कर्म खिरा नहीं पाता है। अज्ञानी जीव उदीरणा कर-करके करोड़ों भवों में कर्मों को खिरा नहीं पाता है और ज्ञानीजीव इन कर्मों को अन्तर्मुहूर्त में भी सेकेन्डों में ही ज्ञानाभ्यास के बल से, ज्ञानस्वरूप की अनुभूति के बल से खिरा देता है, नष्ट कर देता है। ज्ञान की बड़ी महिमा है। ऐसा निरन्तर ज्ञान का उपयोग करने वाले महापुरुष चाहे अविरत सम्यग्दृष्टि हों, चाहे सप्तम गुणस्थानवर्ती साधु हों, जब विश्व पर परमकरुणा की झलक होती है, तब तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है। भैया! ज्ञान का सहारा लिए बिना शांति का पथ मिल ही नहीं सकता है। कौन काम करने योग्य है, कौन नहीं है, यह जब तक विदित नहीं होता, तो मोक्ष के मार्ग में कैसे आ सकते हैं? अपने पाये हुए इस समागम चतुष्टय को ज्ञान के लिए ही लगावो। यह तन पाया है तो ज्ञान के लिए इस तन का श्रम करो। ज्ञानवंत गुरुजनों की सेवा में अब तन का श्रम करो। मन पाया है तो ज्ञान की उपासना के लिए उत्सुकता रखो और ज्ञानवंत पुरुषों की मन से सराहना करो। धन पाया है तो ज्ञान की साधना के प्रसार में इसका व्यय करो। अपने शिक्षण के लिए भी व्यय करो। दूसरे भी धर्मविद्या पढ़ें, उसके लिए व्यय करो। विद्वानों का समागम बनावो, उनके आने-जाने, आहार आदि में व्यय करो अथवा पहिले शास्त्र लिखने की पद्धति थी, लोग शास्त्र लिखवाने में व्यय करते थे। अब शास्त्र प्रकाशन की पद्धति है। यदि न होते वे लिखे हुए शास्त्र या प्रकाशित शास्त्र, तो हम-आप कहाँ-से इनका ज्ञान विकास पाते? तो इसमें व्यय करें। ज्ञान के प्रसार के अनेक साधन हैं। धन पाया है तो ज्ञान के लिए व्यय करें, वचन पाया है तो इसको भी उपयोग में लें, जिससे ज्ञान-प्रकाश मिले, ज्ञान विकास के लिए प्रेरणा मिले, अथवा ज्ञानवंतों की सेवा-शुश्रूषा 06770
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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