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________________ होता। इस कारण स्वानुभव के अर्थ, आत्मकल्याण के अर्थ, संतोष के अर्थ, शील और व्रत में दोष न लगाना, ऐसा यत्न करना आवश्यक है। उपयोग ही तो है यह। जो उपयोग पापों में लगता है, उस उपयोग में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने ब्रह्मस्वरूप का अनुभवन कर सके। इसके लिए तो बड़ी सावधानी की जरूरत है। शीलव्रतेष्वनतिचार का अर्थ 'राजवार्तिक' में ऐसा कहा- अहिंसादि पांच व्रत तथा इन पांच व्रतों को पालने के लिये क्रोधादि कषायों के त्यागरूप शील में मन-वचन-काय की जो निर्दोष प्रवृत्ति है, वह शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है। आत्मा के स्वभाव का नाम शील है। आत्म-स्वभाव का घात करनेवाले हिंसादि पाँच पाप हैं। उनमें कामसेवन नाम का एक ही पाप हिंसादि सभी पापों को पुष्ट करता है तथा क्रोधादि सभी कषायों को तीव्र करता है। यह शील दुर्गति के दुःख को हरनेवाला है, स्वर्गादि शुभगति का कारण है, व्रत-तप-संयम का जीवन है। शील बिना तप करना, व्रत धारण करना, संयम पालना, मृतक के शरीर-समान देखने मात्र का है, कार्यकारी नहीं है। शीलरहित का तप-व्रत-संयम धर्म की निंदा कराने वाला है। ऐसा जानकर शील नाम के धर्म के अंग का पालन करो, चंचल मनरूपी पक्षी का दमन करो, अतिचार रहित शुद्ध शील पुष्ट करो। मन हाथी के समान है। धर्मरूपी वन को विध्वंस करने वाले मनरूपी मदोन्मत्त हाथी को रोकना चाहिये । चलायमान होकर मनरूपी हाथी महान अनर्थ करता है। जैसे मतवाला हुआ हाथी अपने स्थान से निकल भागता है उसी प्रकार काम से उन्मत्त हुआ जनरूपी हाथी अपने समभावरूपी स्थान से निकल भागता है, कुल की मर्यादा, संतोष आदि छोड़ देता है। मदोन्मत्त हाथी तो सांकल तोड़कर भाग जाता है, यह मनरूपी हाथी सुबुद्धिरूपी सांकल तोड़कर घूमता है। हाथी तो मार्ग में चलानेवाले 10 663_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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