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________________ | शीलवतेष्वनतिचार भावना ।। सहस अठारह दोष रहित, जो शील व्रतों को अपनाता। इन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्र आदि से, वह आदर को है पाता।। अग्नि पानी शूली सिंहासन, अजगर माला बन जाता। शीलव्रत की महिमा न्यारी, अपयश यश में ढल जाता।। अठारह हजार दोषों से रहित शीलव्रतों को जो जीव धारण करता है, वह इन्द्र, नरेन्द्र, सुरेन्द्र आदि से आदर को प्राप्त करता है। शीलव्रत के प्रभाव से अग्नि, पानी, शूली, सिहासन, अजगर फूलों की माला हो जाती है। शीलव्रत की महिमा अचिन्त्य है, अनुपम है। शीलव्रत के कारण से अपयश भी यश में परिवर्तित हो जाता है। ___ अहिंसा आदिक व्रतों में और उनके पालने के अर्थ कषायों के त्याग कर देने रूप शीलों में जो निर्दोषता की प्रकृति है, उसको कहते हैंशीलवतेष्वनतिचार। शील में और व्रत में कोई दोष नहीं लगाना ऐसा यत्न होना और ऐसी भावना बनी रहनी चाहिए। स्वानुभूति के लिए पदार्थों का यथार्थ परिज्ञान हो जाना, इतना ही मात्र कार्यकारी नहीं है, किन्तु वास्तविक चारित्र होना स्वानुभूति के लिए कारण पड़ता है। जब तक यह आत्मा यथार्थ परिज्ञान करके अपनी इन्द्रियों व मन को संयत नहीं करता और निजस्वभाव में उपयोग को स्थिर नहीं करता, तब तक स्वानुभूति प्रकट नहीं होती। स्व का अनुभव होना और स्व का ज्ञान होना, इन दो बातों में अन्तर है। स्व का ज्ञान करना ज्ञानसाध्य बात है, परन्तु स्व का अनुभव होना अपने आपको अंतःसंयम में ढाले बिना नहीं 662
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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