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________________ में जितना बल है, इतना बल एक हाथी में होता होगा। 10-5 हाथियों में जितना बल है, उतना बल एक कोट सुभटबल वाले मनुष्य में होता होगा, और अनेक कोटि सुभटों में जितना बल है, उतना बल एक नारायण में होता होगा। ऐसे ही अनेक नारायणों में जितना बल है, उतना बल एक देव में होता है। जितना बल ऐसे अनेक देवों में होता है, उतना बल एक इन्द्र में होता है और जितना बल अनेक इन्द्रों में होता है, उतना बल तीर्थंकर की अंगुली में होता है। पुरानी बात है, एक समय जब सभा भरी हुई थी नेमिनाथ स्वामी के समय में और वहाँ कुछ पुरुषों को गर्व आने लगा था, जो कुछ शान की बातें कर रहे थे, तब एक विवेकी ने यह ही कहा था कि कोई भी सुभट नेमिनाथ स्वामी की अंगुली को टेढ़ी कर दे। तो हैरान हो गये बड़े-बड़े सुभट, पसीने से लथपथ हो गये थे, पर एक अँगुली को टेढ़ी नहीं कर सके। तो यह थोडा-सा बल क्या बल है ? अपने उस अनन्त बल को तो देखो जिस बल के विस्मरण में यह देह का बल मिला है। ज्ञानी परुष को देह के बल का अभिमान नहीं होता है। और देह ही जब मैं नहीं हूँ, तो यह बल मेरा कहाँ से है ? और फिर शरीर का बल शरीर की जगह है, उस बल से आत्मा को बल और शान्ति नहीं मिलती है। ज्ञानी अन्तरात्माओं को देह के बल का मद नहीं होता। बल्कि देह के संबंध से कछ भी विभाव आये, यह मेरा है, कैसा अच्छा है, कितना बल है, ऐसा चिन्तन यदि आये, तो उन्हें लाज आती है, कि मैं क्या सोचने लगा हूँ। मैं तो देह से पृथक् ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूँ। प्रशंसा योग्य बल तो वह है जिस बल के द्वारा कर्म-बैरी दबा दिया जायें। जीव के बैरी हैं- 6 काम, क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह। यह जीव इन 6 शत्रुओं के हमले के कारण कायर दुर्मत बन रहा है। इन शत्रुओं को जो बल नत कर सके, वही बल प्रशंसा के योग्य है। इस शरीर 10 636_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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