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________________ कैसा है ? ऐसा ज्ञान हो तो खोटे मार्ग को छोड़े और अच्छे को ग्रहण करे । जिसमें रागद्वेष पाया जाये, तथा सर्वज्ञपने का अभाव पाया जाये, उन सबको कुदेवादि जानो । सो कहाँ तक इसका वर्णन करें ? दो-चार, दस-बीस हों तो कहने में भी आये। इसलिए ऐसा निश्चय करना कि सर्वज्ञ वीतराग ही देव हैं और उन्हीं के वचनानुसार शास्त्र तथा आचरण वही धर्म है। तथा उन्हीं के वचनों के अनुसार दस प्रकार के बाह्य व चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी, तुरन्त के उत्पन्न हुए बालकवत्, तिल–तुष मात्र परिग्रह से रहित, वीतराग स्वरूप के धारक, वे गुरु हैं । वे स्वयं भवसमुद्र से तिरते हैं तथा औरों को तारते हैं। धर्म का सेवन कर इस लोक में वे यश, बड़ाई नहीं चाहते हैं और परलोक में स्वर्गादिक भी नहीं चाहते हैं, एक मुक्ति ही चाहते हैं । इस प्रकार देव, शास्त्र, गुरु के अलावा जो भी अवशेष रहे, वे सर्व कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म जानना चाहिए। कृष्ण जी की प्रभुत्वशक्ति का वर्णन जैसा जैन सिद्धान्त में किया है, अन्यमत में वैसा वर्णन नहीं है । वह कृष्णजी तो तीनखण्ड के स्वामी थे, तथा बहुत देव, विद्याधर और हजारों मुकुटबद्ध राजा जिनकी सेवा करते थे और कोटिशिला उठाने में समर्थ थे। नाना प्रकार की विभूति से संयुक्त थे। निकटभव्य हैं। शीघ्र ही तीर्थंकर पद को धारण कर मोक्ष जायेंगे, तो भी राज-अवस्था में नमस्कार करने योग्य नहीं हैं । नमस्कार करने योग्य T तो केवल दो ही पद हैं- या तो केवलज्ञानी भगवान् या निर्ग्रन्थ गुरु | इसलिए मोक्ष के अर्थ राजा को नमस्कार कैसे संभव है? जगत का यह स्वभाव है, कि जैसा देखता है वैसा ही मानने लगता है। लाभ-हानि नहीं गिनता । सो अज्ञानवश यह जीव क्या-क्या अयथार्थ श्रद्धान नहीं करता? आगे और कोई यह कहते हैं कि हरि की ज्योति है, उसमें से चौबीस अवतार निकले हैं। कोई यह कहता है कि बड़ी-बड़ी भवानी है । कोई यह कहते हैं कि चौबीस तीर्थंकर, चौबीस अवतार और चौबीस पीर एक ही हैं। 6172
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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