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________________ नहीं ली। वह कहता था, कि मेरा सेठजी से कोई व्यवहार नहीं है।" सेठ जी बोले- कोई बात नहीं। चलो, मैं चलता हूँ।" सब लोग आश्चर्य में पड़ गये। इतने बड़े प्रेष्ठि, जो राजा को धन उधार देते हैं, वे एक गरीब को मिठाई भेंट करने स्वयं जा रहे हैं ? सेठ जी ने कहा- "वह भी हमारे समाज का ही अंग है, उसे कैसे छोड़ दूँ? बग्घी पर सेठजी और पीछे-पीछे सेवक मिठाई लेकर चले। उसकी दुकान से कुछ पहले बग्घी से उतरकर सेठ जी पैदल उसकी दुकान पर गये। वह चने बेचता था। कुछ चने उठाकर फाँक गये। वह बेचारा बहुत दुविधा में पड़ गया, समझ ही नहीं पा रहा था। सेठ जी ने उससे पानी माँगा। उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई। इतने बड़े सम्माननीय व्यक्ति उसकी छोटी-सी दुकान पर आये, चने खाये, अब पानी माँग रहे हैं। कैसे पानी पिलाऊँ ? सुराही तक तो टूटी है। उसे चिंता में देख सेठ जी ने स्वयं टूटी सुराही झकाई और अंजली से पानी पी लिया। फिर उनका इशारा पाते ही सेवकों ने मिठाई की टोकरी लाकर उसके सामने रख दी। वह बोला- सेठ जी! मैंने आपको कभी कछ दिया नहीं, तो मैं आपसे यह कैसे ले सकता हूँ? सेठ जी ने सरलता से कहा"अरे भाई! मैंने तो तुम्हारा खाया भी और पिया भी है। अब तो गृहण कर लो।" इतना सुनना था कि वह सेठ के चरणों में गिर गया। यह है वास्तविक वात्सल्यभाव का रूप, सम्यग्दर्शन का अंग-वात्सल्य, जो छोटे-से-छोटे व्यक्ति के भी स्वाभिमान का मान रखना जानता है। जिसके जीवन में धर्म होता है, वह सबको प्रेमभाव से देखता है, किसी की उपेक्षा नहीं करता। वात्सल्यवान् ज्ञानहीन को छोटा नहीं देखता, बलहीन को उपेक्षित नहीं करता, धनहीन से घृणा नहीं करता, रूपहीन को देखकर दूर नहीं भागता। वह सभी के प्रति वात्सल्यभाव रखता है। हमें प्रत्येक व्यक्ति के प्रति ऐसा ही प्रेम रखना चाहिए। समाज की 10 581
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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