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________________ वाला, उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त के जीवभूत अनेकान्त को (स्याद्वाद को) मैं नमस्कार करता हूँ। आप्तोपज्ञमनुल्लड्.घ्य-मदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् । 19 ।। (रत्नकरण्डश्रावकाचार) जो वीतराग का कहा हुआ हो, इन्द्रादिक से खण्डन रहित, प्रत्यक्ष व परोक्ष आदि प्रमाणों से निर्बाध, तत्त्वों या वस्तुस्वरूप का उपदेशक, सबका हितकारी और मिथ्यात्व आदि कुमार्गों का नाशक हो, उसे सच्चा शास्त्र कहते हैं। गुरु का स्वरूप विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ।।10।। (रत्नकरण्डश्रावकाचार) जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों की चाह की पराधीनता से रहित, आरम्भ रहित, परिग्रह रहित और ज्ञान, ध्यान तथा तप में लवलीन होता है, वह सच्चा गुरु कहलाता है। देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा-भक्ति करना सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण है। इनका निमित्त मिलने पर ही जीव मोक्षमार्ग का पथिक बनता है। कविवर द्यानतराय जी ने लिखा है प्रथम देव अरहंत, सुश्रुत सिद्धांत जू। गुरु निग्रंथ महंत, मुकतिपुर पंथ जू। तीन रतन जगमाहिं, सो जे भवि ध्याइये। तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये ।। देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति करने से परम-पद की प्राप्ति होती है। प्रथमानुयोग में वर्णित जितनी भी कथायें हैं, वे उन आत्माओं की हैं, जो घोर मिथ्यात्व में पड़े थे। जिन्हें किन्ही मुनिराज के दर्शन हो गये, उन्होंने छोटा-सा ही संयम धारण कर लिया और सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी । वे पापात्मा से DU 58
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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