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________________ यह अवस्था मिलती है। अब आपको कौन-सा कष्ट है? कौन सी परिस्थिति बन गई है? आपके विषय में जो सुना है, वह इस पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है।" महाराज जी की आँखों में पश्चाताप के आँसू आ गये। उन्होंने बताया- “पंडित जी। शरीर में बहुत वेदना होती है। सारे शरीर में दाह हो रही है। एक सप्ताह से ठीक से आहारचर्या नहीं हो रही है। इस दाह को शांत करने के लिये शरीर पर बार-बार पानी डालता हूँ। रात्रि में कमंडलु का जल खत्म हो जाने पर घास पर लेटना पड़ता है। मैं स्वयं चिंतित रहता हूँ। पता नहीं कैसे पाप का उदय आ गया? क्या करूँ ? कुछ समझ में नहीं आता। पंडित जी को वस्तुस्थिति समझ में आ गई। उन्होंने मुनिवर से कहा- "आप महाव्रती हैं। आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि तन की दाह को शांत नहीं किया जा सकता, मन की दाह को शांत किया जा सकता है। इस आत्मा ने नरकों की यातनायें भी सही हैं फिर भी इसका कछ नहीं बिगड़ा, तो फिर इस थोड़ी-सी वेदना से विचलित होकर आप अपने मार्ग से स्खलित क्यों होते हैं? हमारा कर्त्तव्य है, हम आपकी ठीक से वैयावृत्ति करेंगे। आप इस ओर से निश्चित रहें।" बाहर आकर पंडित जी ने वहाँ के लोगों से तेज स्वर में कहा"कपड़ा पहनाने की कोशिश करने के पहले आप लोगों ने स्थिति को जानने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या ठीक से वैयावृत्ति नहीं करना चाहिये? महाराज अस्वस्थ हैं, तो उनकी चिकित्सा कराना भी तो हमारा कार्य है। ठीक से आहारचर्या कराना, अपथ्य न देना क्या आवश्यक नहीं है? तुम कर्त्तव्य भूलकर साधु को पथ से स्खलित बनाने वाली परिस्थितियाँ बना रहे हो। पंडित जी की कुशलता से उस दिन एक बड़ी घटना टल गई। यदि cu 565 m
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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