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________________ समय अपने परिणाम को शिथिल होता देखकर धर्मात्मा शीघ्र ही ज्ञान-वैराग्य की भावना के बल से अपनी आत्मा को दृढ़ करे कि 'अरे आत्मा! तेरे को क्या हुआ? ऐसा महान रत्नत्रय धर्म पाकर ऐसी कायरता तुझे शोभा नहीं देती। तू कायर मत हो।' अनेक प्रकार के धर्मचिंतन से अपनी आत्मा को धर्म में स्थिर करें तथा अन्य साधर्मीजनों को भी धर्म से विचलित होता देखकर उसे पुन: धर्म में स्थिर करें। - सम्यग्दृष्टि हर प्रकार से सहायता देकर उसकी धार्मिक आस्था को दृढ़ करता है। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से अपने मार्ग से विचलित हो रहा है तो उसे आर्थिक सहयोग देकर एवं किसी काम पर लगाकर उसे पुनः धर्म में स्थित करता है। शारीरिक रोग के कारण विचलित हो रहा हो तो औषधि देकर, शारीरिक सेवा करके उसे धर्ममार्ग में लगाता है। यदि कुसंगति या मिथ्या उपदेश के कारण वह अपने धर्म मार्ग से स्खलित हो रहा हो, तो योग्य उपदेश देकर उसे पुनः धर्म में स्थित करने का प्रयास करता है। मानव मन बहुत चंचल है, अस्थिर है। सांसारिकता में उलझकर अपने पथ से भटक जाता है। इस भटकावयुक्त जीवन को सन्मार्ग पर प्रेरित करना, उसे स्वयं में स्थिर करना स्थितिकरण है। आचार्य कुंदकुंद स्वामी कहते हैं उम्मग्गं गच्छतं सिवमग्गे जो ठवेदि अप्पाणं। सो ठिदि करणेण जुदो सम्मादिट्ट्टी मुणेयव्वो।। जो पुरुष उन्मार्ग की ओर से मन को बचाकर शिवमार्ग में, सन्मार्ग में लगा लेता है, वही स्थितिकरण से युक्त सम्यग्दृष्टि है। चंचल मन को स्वयं में स्थिर कर स्थितप्रज्ञ हो जाने का नाम ही स्थितिकरण अंग है। जो स्वयं स्थिर नहीं, वह दूसरे को कैसे स्थिर कर सकता है ? इसलिये आचार्य कहते हैं- दूसरे को स्थिर करना है तो पहले स्वयं को 10 560_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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