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________________ उसकी सेवा से प्रसन्न होकर गुरुजी ने उसे एक जादुई दर्पण भेंट किया। उस जादुई दर्पण की ये खूबी थी कि उसे जिस व्यक्ति के सामने रखा जाय तो वह उसके भीतर के भावों को झलकाता था। शिष्य उस दर्पण को पाकर बहुत खुश हुआ। दूसरे ही दिन गुरुजी के पास आनेवाले सारे श्रद्धालु भक्तों के सामने उसने वह दर्पण रख दिया। वह देखकर हैरान हुआ कि सभी के भीतर क्रोध की ज्वाला है, सभी के मन में अहंकाररूपी पर्वत खड़ा है, सभी के हृदय में घृणा की भावना है, सभी के अन्दर ईर्ष्या की अग्नि भड़क रही है, सभी के भावों में लालच की तीव्रता है। वह यह सब देखकर बड़ा परेशान हुआ कि क्या सत्संग में आने वाले सारे भक्तजनों में इतनी अधि क बुराइयाँ हैं? क्या गुरुजी के उपदेश ने इनके भीतर के विकार एवं कषायों को खत्म नहीं किया? बस, जादुई दर्पण मिल जाने के बाद उसका सारा दिन सबके भीतर की बुराइयों को देखने में ही व्यतीत होता है। एक दिन शिष्य ने सोचा कि मैंने सभी भक्तों की बुराइयों को तो जान लिया, अब मुझे अपने गुरुजी के हृदय को भी टटोलना चाहिये। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिनकी मैंने वर्षों सेवा की है, उनका मन भी विकारों से मलिन हो? यह सोचकर उसने एक दिन वह जादुई दर्पण अपने गुरुजी के सामने रख दिया। वह देखकर दंग रह गया कि गुरुजी के मन में इतना अहंकार, वही क्रोध की ज्वाला, मोह का जाल, लोभ का आकर्षण । शिष्य तो आश्चर्यचकित हो गया और सोचने लगा कि क्या मेरे गुरुजी के हृदय में भी ऐसे-ऐसे विकार भरे पड़े हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह दर्पण झूठी बातें झलकाता हो? नहीं, यह सामान्य दर्पण नहीं है, यह तो जादुई दर्पण है। जो जैसा है भीतर से, वैसा ही तो दिखायेगा। धीरे-धीरे उसका मन गुरुजी से विमुख हो गया। एक दिन मौका पाकर वह अपना दर्पण लेकर वहाँ से चल दिया। अब जहाँ-जहाँ जाता है और जो-जो श्रद्धालु 555 in
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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