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________________ हम भी ध्येय रखें तो मानव के अंतर में विराजित परमात्मा को क्यों नहीं देख सकते? अर्थात् देख सकते हैं। आवश्यकता है अंतर्दृष्टि की। यदि अंतर्दृष्टि प्रकट हो गई, तो उपगूहन हो गया। कहा जाता है कि जिसकी जैसी रुचि होती है, वह वैसा ही ग्रहण करता है। दुष्ट को सब दुष्ट और गुणी को सब गुणी दिखते हैं। द्रोणाचार्य पाण्डवों और कौरवों को धनुर्विद्या सिखा रहे थे। शरसंधान चल रहा था। बीच में द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा कि देखकर आओ कि ये पास के गाँव के लोग कैसे हैं? दुर्योधन गया और वापस लौट कर उसने कहा- “गुरुदेव! आपने मुझे कैसे गाँव में भेज दिया? यह गाँव तो बहुत बेकार है। यहाँ दंड के लोगों के मन में न कोई शिष्टता है, न ही सभ्यता। सबके सब उद् और अहंकारी लोग हैं। मुझे तो पूरे गाँव में एक भी विनम्र आदमी नहीं दिखा। द्रोणाचार्य ने थोड़ी देर बाद युधिष्ठिर को भेजा। युधिष्ठिर ने लौट कर कहा- "गरुदेव। इस गाँव के लोग तो बडे सभ्य सरल और सशील हैं। अतिथि के सत्कार में बहुत आगे हैं। प्रत्येक व्यक्ति विनम्रता की मूर्ति प्रतीत होता है। मुझे तो एक भी व्यक्ति गुणहीन दिखाई नहीं पड़ा।" कितना अंतर है दोनों के कथनों में? यह दृष्टियों का अंतर है। यही अंतर होता है एक सम्यग्दष्टि और एक मिथ्यादष्टि में। अभिमानी को सब घमंडी और विनम्र को सब सरल प्रतीत होते हैं। नजरें तेरी बदलीं, तो नजारे बदल गये। किश्ती ने बदला रुख, तो किनारे बदल गये।। युधिष्ठिर धर्म का प्रतीक है। धर्म की दृष्टि में अवगुण दिखते ही नहीं। वहाँ केवल गुणों पर दृष्टि होती है। अवगुण तो अधर्म की आँखों से दिखाई पड़ता है। अतः जब कभी अवगुण दिखने लगें, तो समझ लेना कि हृदय में अधर्म आ रहा है, शीघ्रता से दृष्टि बदलने का प्रयास करना। स्वर्ण तो स्वभाव से शुद्ध होता है, पर बाहरी किट्ट-कालिमा के कारण 0 540 0
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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