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________________ के मार्ग की शुरुआत है। तभी तो कहा- “निज गुण ढाँको।" अपने गुणों को प्रच्छन्न रखना तभी संभव है, जब व्यक्ति अपने दोष देखने का यत्न करे। जो अपने अवगुणों पर दृष्टि रखता है, वह अपने गुणों का बखान नहीं करता। उसे अभी क्या और सुधार करना है, इसका ध्यान रहता है। सम्यग्दृष्टि अपनी उपलब्धियों को नहीं गिनता। उसका ध्यान अपनी कमजोरियों पर रहता है। वह उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। सम्यग्दृष्टि यह नहीं कहता कि मैं कितना आगे बढ़ चुका, वह तो यह देखता कि अभी आगे और कितना बढ़ना है। दो चार कदम चलकर उसे प्रचारित करनेवाले सही प्रगति नहीं कर पाते। वे अपनी उपलब्धियों के अहंकार में डूबे रहते हैं। उनका यह अहंकार ही उनके विकास का अवरोधक बन जाता है, किन्तु जिन्हें अपने ध्येय का ध्यान रहता है, वे एक-एक कदम चलकर अपनी दूरी को समाप्त कर लेते हैं। इसी भाँति सम्यग्दृष्टि यह नहीं गिनता कि कितने गुण आ गये। वह यह गिनता है कि कितने अवगुणों से अभी मुक्त होना है। जब तक एक भी अवगुण शेष है, गुणी नहीं हूँ- यह आत्म-परिणति सतत बनी रहती है। तभी तो कहा है- अपने अवगुण, अपने दोष देखो। उन्हें दूर करने के लिए दूसरों के गुणों से अपना परिशीलन करो। अपने दोष दिखते हैं तो अपने अंतर में गुणों का विकास होता है। पर के यदि दोष दिखेंगे तो वही ग्राह्य हो जायेगा, गुण नहीं उपलब्ध होंगे। चुम्बक के पास बहुत-सी वस्तुयें रखी हों, तब भी वह सबको आकर्षित नहीं करता, किन्तु लोहे का सूक्ष्मकण भी हो तो उसे आकर्षित कर लेता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि किसी व्यक्ति में बहुत अवगुण भरे पड़े हों, उनको नहीं देखता, पर एक भी गुण दिखाई पड़ता है तो उसे ग्रहण कर लेता है। भावना हो तो गुण सबमें ढूँढे जा सकते हैं। धूलशोधक स्वर्ण मिश्रित धूल से स्वर्ण के बारीक कण निकाल लेता है। 0 5390
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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