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________________ । उपगूहन अंग __ अपने गुणों की प्रशंसा न करना, दूसरों की निंदा न करना, साधर्मी में कोई दोष लग जाए तो उसे ढंकना और उस दोष को दूर करने का प्रयत्न करना तथा गुणों में वृद्धि हो ऐसा उपाय करना, सम्यग्दृष्टि का उपगूहन अथवा उपवृंहण अंग है। उपगूहन अंग का पालन करने वाला जीव कभी किसी की कमी नहीं देखता है, न कमी खोजता है। वह न किसी की बुराई करता है, न बुराई सुनता है। वह मात्र स्वयं के चित्त के दर्पण को माँजता है, घिसता है, स्वच्छ करता है और स्वयं के परमात्मा के प्रतिबिम्ब को उभारता है। जब चित्त साफ हो जाता है, तो पर के दुष्कत्य नजर भी नहीं आते, बुराइयाँ दिखती ही नहीं हैं। मात्र अच्छाइयाँ-ही-अच्छाइयाँ नजर आती हैं। हम कभी भी दूसरों के दोष न देखें और न कहें। दोषों से सदा दूर रहना चाहिये। एक बार किसी व्यक्ति ने लुकमान हकीम से पूछा कि आपने तमीज कहाँ से सीखी? उन्होंने जवाब दिया 'बदतमीजों से।' वह व्यक्ति आश्चर्य से बोला 'वह कैसे?' उन्होंने जवाब दिया कि मैंने बदतमीजों की प्रवृत्ति देखी और उसने परहेज किया। इसका परिणाम निकला कि मैंने तमीज सीख ली। __ हमें कभी भी दूसरों के अवगुणों को नहीं देखना चाहिये । हमारी दृष्टि गुण ग्रहण की रहना चाहिये। “गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे।" 0_537_n
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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