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________________ ही देख सकता हूँ। जिस प्रकार नाटक के बाद अभिनेता अपने अभिनय के वेश को उतारकर अपने असलीरूप में आ जाते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी सारा दिन संसार का नाटक करके सामायिक के समय अपने सांसारिक वेश को उतारकर समस्त परद्रव्यों से भिन्न अपने असली आत्मस्वरूप का चिंतन, मनन व ध्यान करता है। सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा जिनमार्ग में सुमेरु पर्वत की तरह अचल रहती है। उसके मन में एक ही धारणा होती है कि जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बताया गया धर्म ही मुक्ति को प्रदान करने वाला है, दुःखों से निकालने वाला है, आत्मा के लिये हितकारक है, बाकी सभी धर्म संसार–परिभ्रमण के कारण हैं। मिथ्याधर्म सुखमार्ग के कंटक हैं, भ्रमजाल में फँसानेवाले हैं। जो मनुष्य वीतराग धर्म को पाकर भी अन्य धर्म को स्वीकार करता है, वह जड़बुद्धि का धारक जीव महल में लगे कल्पवृक्ष को उखाड़कर धतूरे के पेड को बोता है। चिन्तामणि रत्न को दर फेंककर काँच का टुकड़ा स्वीकार करता है। पर्वत सदृश ऊँचे हाथी को बेचकर गधे को खरीदता है। जो मिथ्यादृष्टि जीव सर्वधर्म समन्वय भावों को लेकर जैनधर्म की समानता अन्य धर्मों के साथ करता है, वह अमृत को विष तुल्य, चिन्तामणि रत्न को पत्थर के समान समझता है। सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्याधर्म की न श्रद्धा करता है, न स्वीकारता है, न तदनुकूल आचरण करता है, बल्कि उसे हेय मानकर छोड़ देता है। मूढ़ता को छोड़कर, दम्भी लोगों के आडम्बर को स्वीकार न करना, मूढ़ लोगों की बातों की प्रशंसा न करना, कृत-कारित-अनुमोदना न करना तथा उनके बहकाने में कदापि न आना, यह अमूढदृष्टि अंग है। 10 5360
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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