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________________ आहारदान में अवश्य कोई भूल हुई होगी, जिस कारण से मुनिराज को इतना कष्ट हुआ, मुनिराज की पूर्ण सेवा हमसे नहीं हो सकी।" यहाँ तो राजा ऐसा विचार कर ही रहे थे कि वे मुनि अकस्मात् अदृश्य हो गये और उनके स्थान पर एक देव दिखने लगा । अत्यन्त प्रशंसापूर्वक वह कहने लगा- "हे राजन् ! धन्य है आपके सम्यक्त्व को और धन्य है आपके निर्विचिकित्सा अंग को । इन्द्र महाराज ने आपके गुणों की बहुत प्रशंसा की थी, वह तो एक ही गुण से ध्यान में आ गई। मुनि का वेष धारण करके मैं ही आपकी परीक्षा करने आया था । धन्य है आपके गुणों को.... । ऐसा कहकर देव ने उन्हें नमस्कार किया । वास्तव में किसी मुनिराज को कष्ट नहीं पहुँचा- ऐसा जानकर राजा का चित्त प्रसन्न हो गया और वे कहने लगे- "हे देव! यह मनुष्यशरीर तो स्वभाव से ही मलिन है और रोगों का घर है । यह अचेतन शरीर मलिन हो तो भी उसमें आत्मा का क्या? धर्मी का आत्मा तो सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों से ही शोभित होता है । शरीर की मलिनता देखकर धर्मात्मा के गुणों के प्रति जो ग्लानि करते हैं, उन्हें आत्मा की दृष्टि नहीं होती, परन्तु देह की दृष्टि होती है। अरे! चमड़े के शरीर में ढका हुआ आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शोभायमान हो रहा है, वह प्रशंसनीय है।" राजा उद्दायन की यह उत्तम बात सुनकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा को अनेक विद्यायें दीं, वस्त्राभूषण दिये, परन्तु उद्दायन राजा को उनकी आकांक्षा कहाँ थी । वे तो सम्पूर्ण परिग्रह छोड़कर वर्द्धमान भगवान् के समवसरण में गये और वहाँ उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण कर केवलज्ञान प्रकट करके मोक्ष पाया । हमें पापी व्यक्ति को देखकर भी उससे ग्लानि नहीं करना चाहिये । आचार्यों का कहना है 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ।' यदि कोई पाप को छोड़कर धर्म की ओर वापस आता है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिये । 505 2
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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