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________________ मनुष्य तो सम्यग्दर्शन की आराधना के पश्चात् चारित्र दशा भी प्रकट करके मोक्ष पा सकते हैं। सच में जो जीव निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा इत्यादि आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन के धारक होते हैं वे धन्य हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीवों की हम यहाँ स्वर्ग में भी प्रशंसा करते हैं। इस समय कच्छ देश में उद्दायन नामक राजा अभी सम्यग्दर्शन से सुशोभित हैं और निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने में बहुत दृढ़ हैं। राजा के गुणों की ऐसी प्रशंसा सुनकर वासव नामक एक देव के मन में उन्हें देखने की इच्छा हुई और वह स्वर्ग से उतरकर मनुष्यलोक में आया। इधर उद्दायन राजा एक मुनिराज को देखकर भक्तिपूर्वक आहार-दान के लिए पड़गाह रहे हैं। हे स्वामी! हे स्वामी!! हे स्वामी !!! पश्चात् रानी सहित उद्दायन राजा नवधाभक्तिपूर्वक मुनिराज को आहारदान देने लगे। अरे! लेकिन यह क्या? बहुत से लोग मुनिवेषधारी वासवदेव से दूर भागने लगे। बहुतों ने तो अपने चेहरे को कपड़ों से ढक लिया, क्योंकि मुनि के कुबड़े शरीर में भयंकर कोढ़ रोग हुआ था और उसमें दुर्गन्ध आ रही थी, हाथ-पैर से पीप बह रही थी। परन्तु राजा का इस पर कोई लक्ष्य नहीं था, वे तो प्रसन्न होकर परम भक्ति से एकग्राचित होकर आहारदान दे रहे थे और स्वयं को धन्य मान रहे थे- "अहो! रत्नत्रयधारी मुनिराज मेरे आँगन में आये हैं। इनकी सेवा से मेरा जीवन सफल हो गया।" __ इतने में मुनिराज के पेट में अचानक गड़बड़ी हुई और उनको एकाएक उल्टी हुई। वह दुर्गन्ध भरी उल्टी राजा-रानी के शरीर पर जा गिरी। अचानक दुर्गन्ध भरी उल्टी उनके शरीर पर गिरने से राजा-रानी को किंचित् भी ग्लानि नहीं हुई और मुनिराज के प्रति जरा भी घृणा नहीं आई, बल्कि अत्यन्त सावधानीपूर्वक वे मुनिराज के दुर्गन्धमय शरीर को साफ करने लगे और उनके मन में ऐसा विचार आया- "अरे रे! हमारे su 504 an
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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