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________________ इस मानव की एक भी इन्द्रिय की तृष्णा शांत नहीं हुई। इन्द्रियों के भोग रोग के समान हैं, असार हैं। जैसे केले के खम्भे को छीला जावे तो कहीं भी गूदा या सार नहीं मिलेगा, वैसे ही इन्द्रियों के भोगों से कभी भी कोई सार नहीं निकलता है। इन्द्रियों के भोगों की तृष्णा से कषाय की अधिकता होती है, लोलुपता बढ़ती है, धर्म से च्युति हो जाती है, अतएव पापकर्म का बंध होता है। एक धनिक मरकर सर्प हो जाता है, श्वान हो जाता है, एकेन्द्रिय वृक्ष हो जाता है, ऐसी नीच गति में पहुँच जाता है कि फिर उन्नति करके मानव होना बहुत ही कठिन हो जाता है। इन्द्रियों के दासत्व में प्राणी ऐसे अन्धे हो जाते हैं कि वे धर्म, अर्थ, काम तीनों गृहस्थ के पुरुषार्थों के साधन में कायर, असमर्थ व दीन हो जाते हैं। वे चाह की दाह में जलते रहकर शरीर को रोगाक्रान्त व दुर्बल बनाकर शीघ्र ही इसको छोड़कर चले जाते हैं। जिस मानवजन्म से आत्मकल्याण करना था, उसको उसी तरह व्यर्थ गँवा देते हैं, जैसे कोई अमत के घडे को पीने के काम में न लेकर पैर धोने में बहा दे. चन्दन के वन को ईंधन समझकर जला डाले, आम के वृक्षों को उखाड़ कर बबूल बो देवे। हाथ का रत्न काक के उड़ाने के लिये फेक देवे, हाथी पाकर भी उस पर लकड़ी ढोवे, राजपुत्र होकर भी एक मदिरावाले की दुकान में नौकरी करे। इन्द्रियों के सुख को सुख मानना भ्रम है, मिथ्यात्व है, भूल है, अज्ञान है, धोखा है। बुद्धिमान को उचित है कि इन इन्द्रियों और मन को अपने अधीन उसी तरह रखें, जैसे मालिक घोड़ों को अपने अधीन रखता है। वह जहाँ चाहे वहाँ उनको ले जाता है। उनकी लगाम उसके हाथ में रहती है। जो अपनी इन्द्रियों के दास हो जाते हैं, वे भव-भव में दुःखों को पाते हैं। सम्यग्दृष्टि धर्म के फल में कभी भी भोगों की आकांक्षा नहीं करता, यह उसका निःकांक्षित अंग है। LU 494 u
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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