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________________ चाहो भयंकर भवार्णव तैर जाना, चाहो यहाँ अब नहीं भव-दुःख नाना। ध्याओ उसे, शुचि निजातम है सुहाता, जो शीघ्र कर्ममय ईंधन को जलाता।। __ आदि- अन्त से रहित तथ्य दुःखदायी इस संसार में भ्रमण करते हुये वीतराग सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा कहा हुआ धर्म बड़ी कठिनता से प्राप्त किया है। जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न प्रमाद से समुद्र में गिर जाये तो उसका प्राप्त होना दुर्लभ है, उसी प्रकार आत्मकल्याण के सहकारीभूत सम्पूर्ण कारणों का मिलना अत्यन्त कठिन है। इसलिये इस समय जिनेन्द्रोपदेश का लाभ होने पर शीघ्र मोह, राग, द्वेष का क्षय कर दोगे तो सर्व दुःखों से छुटकारा पा लोगे। देखो बड़ी दुर्लभता से यह मनुष्यजन्म, उत्तम संगति, जिनवाणी का पठन-पाठन, जिनेन्द्र भगवान् की शरण मिली है। यदि इस जन्म में भेदविज्ञान की कला नहीं सीखी और विषय-कषायों में ही फंसे रहे, तो अनन्तकाल तक दुःखों के सागर इस जन्म-मरणरूप संसार में ही भटकना पड़ेगा। यह जीव अपने अपराध से ही दुःखी हो रहा है। कोई बाहरी पदार्थ इसे दुःखी करने के लिये कमर नहीं कसे हुये है। यह स्वयं ही बाह्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की बुद्धि करता है और दुःखी होता है। यहाँ लगे, वहाँ लगे बाह्य में ही, साथ ही उन्हें सबकुछ माने, तो इससे कुछ नहीं मिलता। देखो बाहर अपना कुछ नहीं है। जो इच्छा है, उसी का नाम दुःख है। यदि दुःखों से बचना चाहते हो तो लौकिक सुखों की आकांक्षा छोड़कर धर्म पूर्वक जीवन व्यतीत करो। इन्द्रियों के भोग अतृप्तिकारी, अथिर और तृष्णा को बढ़ाने वाले हैं। इनके भोगने से किसी को भी तृप्ति नहीं हो सकती। जैसे जलरहित वन में मृग प्यासा होता है, वहाँ जल तो है नहीं; परन्तु उसको दूर से चमकती घास या बालू में जल का भ्रम हो जाता है। वह जल समझकर जाता है, परन्तु वहाँ जल को न पाकर और अधिक प्यासा हो जाता है। फिर दूर से 0_4920
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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